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Kavita Kosh से
माथे भर ताल में
रोली की कमल-कली
सम्बन्धों की ऐस ऐसी धूप ढली ।
दुपहर की छाया-सा
फैल गया राहों तक
घुल गए कुहासे में
डूबे कंठस्थ सबक ।
अब न कभी चहकेगी
प्यास किसी ख़्याल में
साँझ-सकारे पगली ।आँगन की होली-सी बात जली । अब न कभी.....।
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