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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अजेय|संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>'''शिव बावड़ी'''
उन दिनों मैंने तूम्हें घूँट-घूँट पिया
दारू की तरह
आज भी सुलग रहा है
मेरे जिस्म के भीतर।
'''फेयर लॉन'''
घास तो वही है।
काश्, इस मखमल पर कुछ लड़के फ्रिस्बी खेलते
कुछ अपने कमरों में नोट्स रट रहे होते
ठाकुर की स्टॉल से ‘बन-आमलेट’ की खुश्बू ख़ुशबू उठ रही होतीदेर रात कुछ जोडे जोड़े ‘कन्ट्री रोड्स’ गाते जंगल में उतर गए होते
चाँदनी में ‘वुडरीना’ के आस पास रोमांस हो रहा होता
कोई हुड़दंगी नाटी लगाए होते
कुछ पढ़ाकुओं ने आकर आपत्ति कर दी होती
और एक लड़का इस सबसे बेखबरबेख़बर
चार्वाक, लाओत्से और मार्क्स को समझने की कोशिश करता
दूर ‘क्रेग्नेनो ’ में बीयर पीते, सूर्यास्त देख रहा होता !
घास तो वही है
हवा लेकिन कुछ बदली-बदली सी है।
'''समर हिल'''
दरअसल तुझे भूल जाना चाहता था
एक दु:स्वप्न की तरह
एक आतंक मुझ पर हावी होता
काँपता हुआ मैं गहरी खाई में डूबता जाता
नीचे-ही नीचे ..................
जहाँ तितलियों के सपने में आते हैं
काले अंधेरे अँधेरे जंगलजिनमें जाल बिछे हुए कदमक़दम-कदम क़दम पर
जहाँ सूरज छिपा रहता था दयार की पत्तियों में
और नाचते रहते हज़ारों डॉल्फिन अपनी ही धुन पर
जहाँ परिन्दों को
अलग-अलग दिशाओं में उड़ने की छूट थी
कोई खतरा ख़तरा नहीं भटकने का / फिर भीजहाँ भयभीत रहते थे दरख्तदरख़्त
और सड़कें सहमी हुईं दबी-दबी
मुड़ रही हैं
लोग उतर रहे हैं, चढ़ रहे हैं
बसें रवाना हो रही हैं .........................
मैं डाकघर की पौड़ियों पर
इस उन्मत्त परिवेश की चकाचौंध से
नज़रें चुराता
आज भी कोई निर्णय नहीं ले पाया हूंहूँजानता हूंहूँ
अंत मे चल देना होगा मुझे
हमेशा की तरह बालूगंज ठेके की तरफ तरफ़ भारी सिर लिए पैदल ही. ।
'''उच्च अध्ययन संस्थान'''
मेरी ओर पीठ किए रहे तुम हमेशा
और मुझे दिखता रहा तुम्हारे पिछवाड़े में
जिसे मैंने कभी खोजना ही नही चाहा -
ताम्रपत्र पर टांका टाँका गया अंग्रेज़ी अँग्रेज़ी भारत का वह अन्तिम मानचित्र / जन्तर-मन्तर
बड़े-बड़े गढ़े हुए, भारी, बेलौस, चिकने सामन्ती पत्थर
और ज़मीन में धंसा धँसा हुआ गांधी गाँधी का यातनागृह
जिस की छत पर घास उगी हुई
जिसके संकरे रोशनदान से
“पिता, ओ पिता !”
और जहां जहाँ से छूट भागा था
उस पुकार से विचलित
भयभीत पक्षियों की तरह
किले की दीवारों को लाँघ आई पुरानी शाखों से झूलते
उस जोड़े को एक जलूस के आगे
तकरीबन हांकते हाँकते हुए से ले जाते थे
कुछ पा लेने के से दंभ में
2002
</poem>