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|रचनाकार=शिवदीनरामजोशी
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<poet> लगन लागी ना अन्तर पट में।
दर्शन केहि विधी होय, राम बैठे है तेरे घट में।
तन की चोरी, मन की चोरी, करती रहती सुरता गोरी,
कैसे मिले, मिले वह सतगुरू, सुरता रहती हट में।
दिल तो खोल, बोल हरि मुख से, रहना चाहे जो तू सुख से,
कपट छांडिमन, मंत्र को रट रे, लगजा सुखमय तट में।
कहा करे गुरू ज्ञान बतावे, अपने शिष्य जनों को चावे,
शिष्य न समझे लगा हुआ वो, तोता की सी रट में।
कहे शिवदीन व्यर्थ दिन खोये, आलस में भर भर कर सोये,
गुरू चरणों में चित्त न देवे, पडा रहे सठ खट में।
<poet>
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