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मस्ति-ए-इश्क़ इश्क़ से लबरेज़ नज़ारा होता
मेरे हाथों में अगर हाथ तुम्हारा होता

इक तस्सवुर भी ज़हन में जो तुम्हारा होता
जीतकर जंग न इस तरह में हारा होता

यूँ न आँखों में तेरे नाम के आँसू होते
तुझको नज़रों से अगर हमने उतारा होता

वो तो खैरात में दे जाता सभी ऐश मगर
ऐ अना ! तू ही बता कैसे गवारा होता

मैं ज़माने को नया नूर दिखा सकता था
मुझको गर वक़्त ने, बेवक्त न मारा होता

तुमको हमसाये की खुशियों पे रहा रश्क मियाँ
कैसे दो वक़्त को रोटी पे गुज़ारा होता

आदमी खुद को ख़ुदा कहने के दावे करता
गर न कुर'आन को धरती पे उतारा होता

अपनी हर बात पे हाँ सुनने की आदत थी जिन्हें
'उनसे इन्कार तो हरगिज़ न गवारा होता'

हम तो आ जाते ज़माने को 'मनु' ठुकराके
तुमने इक बार फ़क़त दिल से पुकारा होता</poem>
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