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दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥<br>
मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।<br>
सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥<br><br>
भावार्थ :-- (मैया कहती हैं -) `हे गोपाल! सबेरा हो गया, अब जागो । व्रजकीसभी नवयुवती सुन्दरी गोपियाँ तुम्हें पुकारती हुई आ गयी हैं । सूर्योदय हो गया,चन्द्रमाका प्रकाश क्षीण हो गया, तमालके तरुण वृक्ष फूल उठे, व्रजकी गोपियाँ फूलोंकी वनमाला गूँथकर तुम्हारे दर्शनके लिये खड़ी हैं । मेरे लाल! अपने सुन्दर मुख को धोकर कलेऊ करो, मैं तुमपर बलिहारी हूँ ।' सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामीकमलके समान विशाल लोचनवाले तथा आनन्दकी निधि हैं । (उनकी निद्रामें भी अद्भुतशोभा और आनन्द है ।)