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पता है तुम्हें ....! / सुशीला पुरी

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पता है तुम्हें ....!

जब भी हम बात करते हैं

पता है तुम्हें ! क्या क्या होता है?


ओस की नन्‍ही बूँदों में

अनवरत भीगती है मेरी आत्‍मा

भोर की पहली किरन सी

दौड़ने लगती हूँ नर्म-नंगी दूब पर,


तमाम तितलियाँ उड़ती हैं

चेतना के बाग में

अमरूद के पेड़ों के बीच छुप जाती हूँ मैं

तोड़ने लगती हूँ अधपके अमरूद,


सुगंध सी दौड़ती है बेतहाशा

धमनी-शिराओं में

और पाँव तले की धरती भी

महकने लगती है यकबयक,


ढेर सारी गौरैया चहचहाने लगतीं हैं

दालान ,छत, मुंडेरों पर

घर भी लेता है

एक लम्बी साँस,


अंगूर की लताएं

पूरे आँगन में छा जाती हैं

और उनकी परछाइयों से

बनाती हूँ तुम्हारा चित्र,


किसी अज्ञात लय पर

थिरकती है हवा मरुस्थल से समंदर तक

नाचती हूँ आदिम धुन और ताल पर अनथक

शब्द ठिठक जाते हैं ओढ़-ओढ़ मौन,

इसी महामौन में बहते हैं आंसुओं के प्रपात

दोनों के आँसुओं को बटोर कर

मैं बनाती हूँ एक लम्बी नदी

गुनगुनी सी अनमनी सी

धीरे धीरे बहती है वो


लहरों में उसकी मछलियों हैं

और मछलियों में मैं हूं...!
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