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Kavita Kosh से
ये तमाशा नहीं हुआ था कभी
है वो अपना, जो दूसरा था कभी
अब वही जानता नहीं मुझको
जिसे अपना मैं जानता था कभी
पास आकर भी क्यूँ है पज़मुर्दा
दूर रह कर जो रो रहा था कभी
वक़्त का हेर फेर है वर्ना
जो पुराना था वो नया था कभी
लग़ज़ीश ए पा ने कर दिया मजबूर
मैं संभलता हुआ चला था कभी
घर के दिवार ओ दर से ही पूछें
कौन आकर यहाँ रहा था कभी
उतर आया हूँ शोर ओ शैवन पर
ख़ामशी से न कुछ बना था कभी
भरता हूँ दम यगान्गी का तिरा
मुझ से बेगाना तू हुआ था कभी
शेएर कहने लगा हूँ मैं भी रवि
मुझ से ऐसा नहीं हुआ था कभी
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