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भावार्थ :-- श्यामसुन्दर अकेले पलने में सोये हैं, बार-बार हर्षित होकर अपनी धुनमेंखेल धुन में खेल रहे हैं । हाथों से चरण पकड़कर (पैरकेपैर के) अँगूठेको अँगूठे को वे मुखमें मुख में डाल रहे हैं । इससे शंकरजी शंकर जी चिन्ता करने लगे, ब्रह्मा अपनी बुद्धि से विचार करने लगे (कि प्रलय का तो समय आया नहीं, क्या करना चाहिये?) अक्षयवट बढ़ने लगा, समुद्रका समुद्र का जल उमड़ पड़ा, प्रलयकाल के मेघ प्रलयकाल समझकर चारों ओर बिखरकर दौड़ पड़े (क्योंकि प्रलयके प्रलय के समय ही भगवान बालमुकुन्द-रूप से पैरका पैर का अँगूठा मुखमें मुख में लेते हैं), दिक्पाललोग दिक्पाल लोग (भूमिके भूमि के आधारभूत) दिग्गजोंको दिग्गजों को समेटने (वहाँसे वहाँ से हटाने) लगे। (सनकादि) मुनि भी मन-ही-मन भयभीत हो गये, पृथ्वी काँपने लगी, संकुचित होकर शेषनागने शेषनाग ने सहस्र फण उठा लिये (कि मुझे तो प्रभुकी प्रभु की प्रलय-सूचनासे सूचना से पहिले ही फणोंकी फुंकारसे फणों की फुंकार से अग्नि उगलकर विश्वको विश्व को जला देना था,जब मेरे काममें काम में देरी हुई।) लेकिन (यह सब आधिदैविक जगत में हो जानेपर जाने पर भी ) उनव्रजवासियों उन व्रजवासियों ने (जो नन्दभवनमें थे) कोई विशेष बात नहीं समझी । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं-वे तो यही समझते रहे कि श्याम (खेलमेंखेल में) छकड़ेको पैरसे छकड़े को पैर से हटा रहा है ।