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नगर प्रवेश / नन्दल हितैषी

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<poem>
जब तुम आते हो
सड़क के दोनो किनारे
पार दी जाती है, चूने की कतार,
देखते ही देखते
चौड़ी हो जाती हैं सड़कें.
रातों रात लग जाते हैं पैबन्द,
जिससे तुम्हें हचका न लगे,
कहीं सरक न जाये हूक.
कहीं हिल न जाय पेट का पानी
रातोंरात चटक हो उठते हैं
सड़क के ज़ेब्रे,
कुछ अधिक ’फ़ुर्त;/ हो जाते हैं चौराहे
और सीटियों के अन्तराल में
होने लगती है कंजूसी.
सिर्फ़ घुड़कते हैं लाल साफे

जब तुम आते हो
शहर में बरपा होता है/एक हंगामा
होती है कोई सड़क विशेष
तुम्हारे लिये
.... और तुम आम से खास हो जाते हो
सर्र ऽ ऽ हो जाते हो
तुम्हारे काफ़िले में
सबसे पीछे होती है फायर ब्रिगेड की गाड़ी
जब जब तुम आते हो
शहर में आग लगती है
तुम आग लगाने आते हो?
</poem>
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