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बाल दशा अवलोकि सकल मुनि, जोग बिरति बिसरावैं ॥<br><br>
भावार्थ :-- गोविन्द व्रजराज श्रीनन्दजी श्रीनन्द जी के आँगन में खेल रहे हैं । माता यशोदा उनके चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखको मुख को देख-देखकर अत्यन्त आनन्द पा रही हैं । मोहन की कटि में किंकिणी (करधनी) है । मस्तक पर चन्द्रिका है जिसके माणिक की लटकन ललाट झूल रही है । अत्यन्त सुन्दर कण्ठ में बघनखा पहिनाया पहनाया है, जिसकी माला में बीच-बीच में हीरे और मूँगे लगे हैं । हाथों में पहुँची (गहना) है, चरणों में नूपुर हैं, शरीर पर पीताम्बर शोभा दे रहा है । आँगन में घुटनों से चलते हुए क्रीड़ा कर रहे हैं, मुखमें मुख में माखन लगा है । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर की विचित्र लीला का वर्णन जिह्वा से हो नहीं पाता है । उनकी बालक्रीड़ा को देखकर सभी मुनिगण अपने योग तथा वैराग्य को भूल जाते हैं ।