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Kavita Kosh से
आंखों पर चश्में रंगीन
हवन जिन्हें करना था वो भी
बजा हें रहे सुविधा की बीन
दोष नहीं था आंखों का पर
पतझड़ हुये बसंती सपने,
चमकदार कहने भर को थे,
देख न पाये शकल स्वयं की
हाथ थमे दर्पण यू ंतो तो थे,
आग लगा बैठे घर अपने
मति ले गया विधाता छीन
थे वेा नियति तो वे नीयति के खेाटे खोटे
पर था राजयोग हाथों में,
कहने भर को थे दधीचि पर