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Kavita Kosh से
बाँस-बाँस पानी है
काग़ज़ की नाव
अंगद के पाँव
सुविधाएँ माँग रही रहीं
मनमाने दाम,
खोखली व्यवस्था के
राजा के गाँव
उगल रह रहे होंठों से
पल-पल पर ज्वाल
लोकतंत्र घाटी के
वादों की छाँव
झूठों की को राजसभा
सच्चों को जेल
अपराधी खेल रहे