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Kavita Kosh से
हो गयी यंत्रवत अब जिंदगी यह,
मन समझ जज्बात को पाता नहीं।
कट रहे नित कामना के पंख फैले
लौह सी कटुधारियां मन पर खिंची,
व्योम उठती आंधियों केा को देखकर
स्तब्ध होकर रह गयी आंखें भिंची,
हो गये हैं दृष्टि से वर्णान्ध ऐसे,
अब धुंआ उठता नजर आता नहीं।
टूटते निःशब्द होकर भाव मनके
घिर गये हैं उलझनों से आज ऐसे
मेध से जैसे सितारे हों घिरे,
हो गये कुछ इस तरह से दिग्भृमित हैं,
रास्ता अब दिख रहा जाता नहीं ।
घट रहे हैं मूल्य-नैतिक आदमी के
भोर की परछांइयां जैसे घटे
कट रहे हैं दिवस गिन गिन जिन्दगी के
भूख से व्याकुल हुये पल ज्यों कटे,
हैं प्रफुल्लित चन्द सिक्कों की खनक सुन,
राग कोई और मन भाता नहीं ।
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