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सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि बुद्धि भुलावै ॥<br><br>
भावार्थ :-- (कन्हाईकोकन्हाई को) चलते देखकर माता यशोदा आनन्दित होती हैं, वे पृथ्वीपर पृथ्वी पर ठुमुक ठुमुककर (रुक-रुककररुक कर) चरण रखकर चलते हैं और माताको माता को देखकर उसे (अपना चलना) दिखलाते हैं (कि मैया ! अब मैं चलने लगा) देहलीतक देहली तक चले जाते हैं और फिर बार-बार इधर ही (घरमेंघर में) लौट आते हैं । (देहली लाँघनेमेंलाँघने में) गिर-गिर पड़ते हैं, लाँघते नहीं बनता, इस क्रीड़ा से वे देवताओं और मुनियोंके मनमें मुनियों के मन में भी संदेह उत्पन्न कर देते हैं (कि यह कैसी लीला है ?) जोकरोड़ों ब्रह्माण्डोंका जो करोड़ों ब्रह्माण्डों का एक क्षणमें क्षण में निर्माण कर देते हैं और फिर उनको नष्ट करनेमें करने में भी देर नहीं लगाते, उन्हें अपने साथ लेकर श्रीनन्दरानी नाना प्रकारके प्रकार के खेल खेलाती हैं, (जब देहरी लाँघते समय गिर पड़ते हैं । तबश्रीयशोदाजी तब श्रीयशोदा जी हाथ पकड़कर श्यामसुन्दर को धीरेधीरे धीरे-धीरे देहली पार कराती हैं । सूरदासकेस्वामीको सूरदास के स्वामी को देख-देखकर देख कर देवता, मनुष्य और मुनि भी अपनी बुद्धि विस्मृत कर देते हैं (विचार-शक्ति खोकर मुग्ध बन जाते हैं) ।