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उठता-गिरता-मुड़ता उड़ता जाएटुकड़ा काग़ज़ का टुकड़ा
कभी पेट की चोटों को
आँखों में भर लाता
और कभी अकेले में मन ही मन भीतर की
टीसों को गाता
अंदर-अंदर कुढ़ता लुटता जाएटुकड़ा काग़ज़ का टुकड़ा
कभी फ़सादों -बहसों में उलझातकली बनकर नचा शब्द-शब्द है नाचा टूटेदरके-फूटे दरके शीशे में अपना चेहरा देखा- बांचा
घटनाओं से जुड़ता सिद्धजनों पर हँसता जाएटुकड़ा काग़ज़ का टुकड़ा
कभी कोयले-सा जलताधधका,फिर राख बना तो , रोयामाटी में मिल जाने परगया सदा-सदा को कि जैसे माटी में सोया
चलता है हल चलने पर गुड़ता जाएटुकड़ा काग़ज़ का टुकड़ा
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