भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
}}
<poem>
बिना नाव के माझी मिलतेदेखे मुझको मैंने नदी किनारेकितनी राह कटेगी चलकरउनके संग सहारे!
इनके-उनके ताने सुनना
दिन-भर देह गलाना
नौ की आग बुझाना
बढ़ती जाती रोज उधारी
ले-दे काम चलाना
रोज-रोज झोपड़ पर अपने
नए तगादे आना
केवल बातें घोले
प्यासा तोड़ दिया
करता दम
मुख को खोले-खोले
</poem>