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Kavita Kosh से
हर किसी का दर्द अपना दर्द समझे,
आज कोई इस तरह दिखता नहीं है।
देख करके दूसरों की वेदनाऐं,
गूंजते अक्सर हवा में स्वर हंसी के,
शर्म से जब झुक गया हो सर किसी का
हो रहे अहसास लोगों की को खुशी के, दूसरेां दूसरों के घर बचाने में जले खुद,
आदमी अब वह कहीं मिलता नहीं है।
बढ़ रहीं मन द्वेष की दुर्भावनाऐं
ज्यों नदी बरसात में उमड़े बहे,
विश्व के कल्याण हित विष पान कर ले,
आज साहस आदमी करता नहीं हैं।
उलझनों के जाल को जो काट डाले
हैं न कोई तम-विजेता सूर्य जैसा,
पर्वतों केा को काट लाये देवगंगा
आज दिखता है नहीं नरपुंज ऐसा,
जो बदल दे वक्त केा को निज लेखनी से,
आज कोई इस तरह लिखता नहीं है।
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