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{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
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<Poem>
छुटकी बिटिया
अपनी माँ से
करती कई सवाल
चूड़ी-कंगन
नहीं हाथ में
ना माथे पर बैना है
मुख मटमैला-सा
है तेरा
बौराए-से नैना हैं
इन नैनो का
नीर कहाँ-
वो लम्बे-लम्बे बाल
देर-सबेर
लौटती घर को
जंगल-जंगल फिरती है
लगती
गुमसुम-गुमसुम-सी तू
भीतर-भीतर तिरती है
डरी हुई
हिरनी-सी है क्यों
बदली-बदली चाल
नई व्यवस्था में क्या
ऐ माँ
भय ऐसा भी होता है
छत-मुडेर पर
उल्लू असगुन
बैठा-बैठा बोता है
पार करेंगे
कैसे सागर
जर्जर-से हैं पाल
</poem>
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|संग्रह=
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<Poem>
छुटकी बिटिया
अपनी माँ से
करती कई सवाल
चूड़ी-कंगन
नहीं हाथ में
ना माथे पर बैना है
मुख मटमैला-सा
है तेरा
बौराए-से नैना हैं
इन नैनो का
नीर कहाँ-
वो लम्बे-लम्बे बाल
देर-सबेर
लौटती घर को
जंगल-जंगल फिरती है
लगती
गुमसुम-गुमसुम-सी तू
भीतर-भीतर तिरती है
डरी हुई
हिरनी-सी है क्यों
बदली-बदली चाल
नई व्यवस्था में क्या
ऐ माँ
भय ऐसा भी होता है
छत-मुडेर पर
उल्लू असगुन
बैठा-बैठा बोता है
पार करेंगे
कैसे सागर
जर्जर-से हैं पाल
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