भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `मेरे कुँवर कन्हाई! मैं बार-बार बलिहारी जाती हूँमीठे स्वरसे हूँ मीठे स्वर से कुछ गाओ तो। अबकी अब की बार नाचकर अपने बाबाको बाबा को (अपना नृत्य) दिखादो ।अपने हाथसे दिखा दो । अपने हाथ से ही ताली बजाओ, इस प्रकार मेरे हृदयमें हृदय में परम प्रेम उत्पन्न करो । तुम किसीदूसरे किसी दूसरे जीवका शब्द सुनकर डर क्यों रहे हो, अपनी भुजाएँ मेरे गलेमें गले में डाल दो । (मेरीगोदमें मेरी गोद में आ जाओ ।) मेरे लाल! अपने मनमें मन में कोई शंका मत करो! क्यों संदेहमें संदेह में पड़ते हो (भयका भय का कोई कारण नहीं है) । कलकी भाँति भुजाओंको भुजाओं को उठाकर अपनी `धौरी' गैयाको गैया को बुलाओ ।मैं । मैं तुम्हारी बलिहारी जाऊँ, तनिक नाचो और अपनी मैयाकी मैया की इच्छा पूरी करदो कर दो । रत्नजटितकरधनी रत्नजटित करधनी और चरणोंके नूपुरको चरणों के नूपुर को अपनी मौजसे मौज से (नाचते हुए) बजाओ । (देखो) स्वर्णके खम्भेमें स्वर्ण के खम्भे में एक शिशुका प्रतिबिंब है, उसे मक्खन खिला दो ।' सूरदासजी कहते हैं, श्यामसुन्दर ! मेरे हृदयसे हृदय से आप तनिक भी कहीं टल जायँ, यह मुझे जरा भी अच्छा न लगे ।रतन। रतन-जटित किंकिनि पग-नूपुर, अपने रंग बजावहु ॥
कनक-खंभ प्रतिबिंबित सिसु इक, लवनी ताहि खवावहु ।
सूर स्याम मेरे उर तैं कहुँ टारे नैंकु न भावहु ॥