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सूरदास-प्रभु सुख-सागर अति, सोइ सुख सेस सहस मुख गायौ ॥<br><br>
भावार्थ :--सौभाग्यसे श्रीनन्दजी सौभाग्य से श्रीनन्द जी ने उस आनन्दघनको आनन्द घन को प्राप्त कर लिया है, जो आनन्दस्वरूप ब्रह्मादिकों को भी प्राप्त नहीं होता; किंतु (यहाँ गोकुलमे गोकुल मे तो ) उसीको उसी को मैया यशोदा गोदमें गोद में लेकर खेलाती हैं । (इतना ही नहीं,) वही सुखस्वरूप गायों और बछड़ों के साथ वृन्दावनमें वृन्दावन में जाता है, वही सुख-निधि गोपकुमारोंको पुकारबुलाता गोपकुमारों को पुकार बुलाता है, वही आनन्दघन यमुना-किनारे कदम्बपर चढ़ा और क्रोध करके (हृद में कूदकर) कालियनागको कालिया नाग को पकड़ लाया ! वह तो आनन्द-ही-आनन्द उड़ेलता कुञ्जोंमें कुञ्जों में घूमता है, समस्त सुखों की राशि वह (सायंकाल)वनसे वन से व्रज में आया । सूरदासका सूरदास का वह स्वामी तो सुखोंका सुखों का महान् समुद्र है, शेषजी शेष जी अपने सहस्र मुखों से उस सुखस्वरूप का ही गुणगान करते हैं ।