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|रचनाकार=मंगलेश डबराल
}}
[[Category:कविता]]{{KKCatKavita}}<poem>कालातीत कवि अपने जीते जी कालातीत हो जाते हैं. एक सुबह वे<br>यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वे काफी बड़े हो गये हैं. कई<br>बार उन्हें अपने से तिगुना-चौगुना होते हुए देखा गया है. उनके<br>पाजामे अकसर छोटे पड़ जाते हैं. अपनी चप्पलें वे छोटे कवियों को<br>
दे देते हैं.
कुछ कवि रात में कालातीत होते हैं. लोग जब सिकुड़े-सिमटे गठरी<br>बने नींद में दुबके रहते हैं कवियों का कद बढ़ता रहता है. कभी वे<br>इतने बढ़े हो उठते हैं कि वे भी अपने को देख नहीं पाते. कुछ कवि<br>अपने बचपन में ही बुजुर्ग हो गये. युवा होते-होते उन्हें कालजयी कहा<br>जाने लगा. कुछ ने अपने नाम मृतकों की सूची में लिखवा लिये. कुछ<br>
दूसरी भाषाओं में पा गये ईनाम.
कुछ कवि अपने बचपन के फोटो छ्पवाते हैं. बाकी अपने बच्चों के<br>फोटो छ्पवाकर काम चलाते हैं कि हम तो रहे विफल. अब बच्चों<br>
से ही है उम्मीद.
१९८८
</poem>
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