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सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ ॥<br><br>
भावार्थ :--`मेरे लाल! दूर खेलने मत जाओ, वनमें वन में हौए आये है ।'तब कन्हाई हँसकर बोले- `मैया! किसने हौओंको हौओं को भेजा है ?' श्रीबलरामजी श्री बलराम जी (छोटे भाईकीभाई की) ये बातें सुनकर हँसते हैं और (मन-ही-मन) कहते हैं - ` अब आप डरने लगे हैं,किंतु पृथ्वी के नीचेके नीचे के सातवें लोक पातालमें शेषकी शय्यापर पाताल में शेष की शय्या पर विराजते हैं, उस समयकी सुधि भूल गये । (प्रलयके प्रलय के समय) जब शंखासुर (ब्रह्माजीसेब्रह्मा जी से) चारों वेद ले गया और प्रलयके जलमें प्रलय के जल में छिप गया, उस समय जब आपने मत्स्यावतार लेकर उसे मारा, तब हौए कहाँ थे देवता और दैत्यों केलिये के लिये आपने समुद्र-मन्थन किया और समुद्रमें समुद्र में डूबते मन्दराचलको कच्छपरूप मन्दराचल को कच्छप-रूप धारण करके पीठपर पीठ पर लिये रहे, वहाँ भी हौए नहीं दिखलायी पड़े थे । जबदैत्य जब दैत्य हिरण्याक्ष अपने मनमें मन में अत्यन्त गर्वित होकर युद्धकी युद्ध की अभिलाषा करने लगा, तब आपने उसे वाराहरूप वाराह- रूप धारण करके मारा और पृथ्वीको दाँतोंके पृथ्वी को दाँतों के अगले भागपर भाग पर उठा लिया । जब आपने भक्त प्रह्लादकी रक्षाके प्रह्लाद की रक्षा के लिये भयंकर नृसिंहरूपमें नृसिंह के रूप में अवतार लिया और हिरण्यकशिपुका हिरण्यकशिपु का शरीर नखोंसे नखों से फाड़ डाला, वहाँ भी तो हौए नहीं दीखे थे । वामनावतार धारण करके आपने बलिसे बलि से छल किया और पूरी पृथ्वी तीन ही पद में नाप ली; उस समय ब्रह्माजी ने आपके चरणोंका चरणों के दर्शन करके उन चरणोंको चरणों को धोकर चरणोंके पसीनेसे चरणों के पसीने से मिला चरणोदक अपनेकमण्डलु अपने कमण्डलु में रख लिया । जब (सहस्त्रार्जुननेसहस्त्रार्जुन ने) बिना अपराध ही मुनि जमदग्निको जमदग्नि को मार दिया, क्योंकि उसके द्वारा हरण की गयी कामधेनु आप लौटा लाये थे; तब आपने (उस परशुरामावतारमेंपरशुरामावतार में) इक्कीस बार पृथ्वीको पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया; वहाँ भी होए हौए तो नहीं दीखे थे ! जब आपने रामावतार लेकर दस मस्तक और बीस भुजावाले रावणको भुजा वाले रावण को मारा और जब लंकाको लंका को जलाकर भस्म कर दिया, तब भी वहाँ हौए नहीं दीख पड़े थे । भक्तों की रक्षा केलिये के लिये और असुरोंको असुरों को मारकर नष्ट कर देनेके देने के लिये आपने यह अवतार लिया है, (अब यहाँयह भयका यहाँ यह भय का नाटक क्यों करते हैं ?) सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामीकी स्वामी की यह लीला है, जिसका वेद भी नित्यप्रति नित्य-प्रति `नेति-नेति' कहकर (पार नहीं, पार नहीं--इसप्रकार वर्णनकरते वर्णन करते हैं ।
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