भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ }} [[Catego...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
}}
[[Category: चोका]]
<poem>
'''1-मन दर्पन'''
मन दर्पन
दरक गया जब,
बिखर गया
सारा सुख-जीवन ।
पाती अनाम
आती है आजकल
लूटे किसने ?
वे प्यारे सम्बोधन ।
आदि बेनामी
नहीं कुछ भीतर ,
लिये उदासी
हो रहा समापन ।
कोई न जाने
वह चुप्पी का दंश,
खूब रुलाए
साँसों पर बन्धन ।
सपने खोए
ज्यों गर्म तवे पर
थे आँसू बोए
किया सब तर्पण ।
कहाँ कन्हैया ?
गुम कहाँ बाँसुरी
भटके राधा
शापित वृन्दावन ।
मज़बूरी जो
हम वह भी जाने
व्याकुलता से
भरे, नयन करें
दु:ख का आचमन ।
-0-
'''2-रेशम-से बन्धन'''
भरम हुआ
यह न जाने कैसे
दरक गया
है मन का दर्पन ।
धुँधले नैन
ये देख नहीं पाए
कौन पराया
कहाँ अपनापन ?
मुड़के देखा-
वो पुकार थी चीन्हीं
पहचाना था
प्यारा-सा सम्बोधन ।
धुली उदासी
पहली बारिश में
धुल जाता ज्यों
धूल-भरा आँगन ।
आँसू नैन में
भरे थे डब-डब
बढ़ी हथेली
पोंछा हर कम्पन ।
थे वे अपने
जनम-जनम के
बाँधे हुए थे
रेशम-से बन्धन ।
प्राण युगों से
हैं इनमें अटके
यूँ ही भटके
ये था पागलपन ।
तपता माथा
हो गया शीतल
पाई छुअन
मिट गए संशय
मन की उलझन ।
-0-
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
}}
[[Category: चोका]]
<poem>
'''1-मन दर्पन'''
मन दर्पन
दरक गया जब,
बिखर गया
सारा सुख-जीवन ।
पाती अनाम
आती है आजकल
लूटे किसने ?
वे प्यारे सम्बोधन ।
आदि बेनामी
नहीं कुछ भीतर ,
लिये उदासी
हो रहा समापन ।
कोई न जाने
वह चुप्पी का दंश,
खूब रुलाए
साँसों पर बन्धन ।
सपने खोए
ज्यों गर्म तवे पर
थे आँसू बोए
किया सब तर्पण ।
कहाँ कन्हैया ?
गुम कहाँ बाँसुरी
भटके राधा
शापित वृन्दावन ।
मज़बूरी जो
हम वह भी जाने
व्याकुलता से
भरे, नयन करें
दु:ख का आचमन ।
-0-
'''2-रेशम-से बन्धन'''
भरम हुआ
यह न जाने कैसे
दरक गया
है मन का दर्पन ।
धुँधले नैन
ये देख नहीं पाए
कौन पराया
कहाँ अपनापन ?
मुड़के देखा-
वो पुकार थी चीन्हीं
पहचाना था
प्यारा-सा सम्बोधन ।
धुली उदासी
पहली बारिश में
धुल जाता ज्यों
धूल-भरा आँगन ।
आँसू नैन में
भरे थे डब-डब
बढ़ी हथेली
पोंछा हर कम्पन ।
थे वे अपने
जनम-जनम के
बाँधे हुए थे
रेशम-से बन्धन ।
प्राण युगों से
हैं इनमें अटके
यूँ ही भटके
ये था पागलपन ।
तपता माथा
हो गया शीतल
पाई छुअन
मिट गए संशय
मन की उलझन ।
-0-
</poem>