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|रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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[[Category: चोका]]
<poem>
'''5-ये दु:ख की फ़सलें'''

खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
-0-

'''6-चिन्ता करना'''

चिन्ता करना
खुलते घोटालों की
रक्षा करना
सत्ता के दलालों की
आम आदमी
मरता मरने दो
अपराधी को
लॉकर भरने दो
भूखे तड़पें
उनका फ़िक्र नहीं
अन्न सड़ाओ
गड्ढों में भरने दो
देश है रोता
तुम कभी न रोना
लाशों को देख
धीरज नहीं खोना
भाषण देना
खुछ भी न करना
छुप जाना तू
ऊँची कुर्सी के नीचे
बैठे रहना
अपनी आँखें मीचे
सारी बाधाएँ
खुद टल जाएँगी
जनता का क्या
यूँ ही जल जाएगी
चिथड़े उड़ें
तुझको क्या डर है
परमपापी !
तू सदा अमर है
जो सच बोले
अगवा करवा दो
गुण्डों के बल
उनको मरवा दो
खा लेना सब
स्वीकार नहीं लेना
डकार नहीं लेना
-0-
</poem>