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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
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ज़िन्दगी के...
::कमरों में अँधेरे<br>::लगाता है चक्कर<br>::कोई एक लगातार;<br>आवाज़ पैरों की देती है सुनाई<br>बार-बार....बार-बार,<br>वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,<br>किन्तु वह रहा घूम<br>तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,<br>भीत-पार आती हुई पास से,<br>गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा<br>::अस्तित्व जनाता<br>::अनिवार कोई एक,<br>और मेरे हृदय की धक्-धक्<br>पूछती है--वह कौन<br>सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !<br>इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से<br>फूले हुए पलस्तर,<br>खिरती है चूने-भरी रेत<br>खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह--<br>ख़ुद-ब-ख़ुद<br>कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,<br>स्वयमपि<br>मुख बन जाता है दिवाल पर,<br>नुकीली नाक और <br> भव्य ललाट है,<br>दृढ़ हनु<br>कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।<br>कौन वह दिखाई जो देता, पर<br>नहीं जाना जाता है !!<br>कौन मनु ?<br><br>
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब...<br>अँधेरा सब ओर,<br>निस्तब्ध जल,<br>पर, भीतर से उभरती है सहसा<br>सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति<br>कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है<br>और मुसकाता है,<br>पहचान बताता है,<br>किन्तु, मैं हतप्रभ,<br>नहीं वह समझ में आता।<br><br>
अरे ! अरे !!<br>तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष<br>चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक<br>वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,<br>शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर<br>चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्--<br>वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक <br> तिलस्मी खोह का शिला-द्वार<br>खुलता है धड़ से<br>........................<br>घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी<br>अन्तराल-विवर के तम में<br>लाल-लाल कुहरा,<br>कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,<br>रहस्य साक्षात् !!<br><br>
तेजो प्रभामय उसका ललाट देख<br>मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर<br>गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख<br>सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर<br>विलक्षण शंका,<br>भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्<br>गहन एक संदेह।<br>
वह रहस्यमय व्यक्ति<br>अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है<br>पूर्ण अवस्था वह<br>निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,<br>मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,<br>हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,<br>आत्मा की प्रतिमा।<br>प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,<br>इसी लिए बाहर के गुंजान<br>जंगलों से आती हुई हवा ने<br>फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-<br>कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर<br>मौत की सज़ा दी !<br><br>
किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही<br>आँखों में बँध गयी,<br>किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,<br>किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में<br>::गिरा दिया गया मैं<br>
::अचेतन स्थिति में !
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