भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥<br><br>
भावार्थ :-- श्याममसुन्दर स्वयं धीरेसे धीरे से सूने घरमें गुस घर में घुस गये, सभी सखाओंको सखाओं को बाहर ही छोड़ दिया; वहाँ भीतर उन्होंने दही और मक्खन देखा । तुरंत मथे हुए दहीसे निकलामक्खन दही से निकला मक्खन वे पा गये । उसे उठा-उठाकर होंठोपर उठा कर होंठो पर रखने और आरोगने लगे । (फिर) संकेतकरके संकेत करके सब सखाओंको सखाओं को बुला लिया,उन्हें भी अपने हाथोंमें हाथों में भर-भर भरकर कर देने लगे । वक्षःस्थल वक्ष-स्थल पर दही की बूँदें छिटक रही हैं । मनमें मन में भय करके इधर-उधर देखते भी जाते हैं । सखाओंकी सखाओं की आड़ लेकर उठते हैं और सबको देख लेते हैं (कि कोई कहींसे कहीं से देखती तो नहीं ) फिरमक्खन फिर मक्खन लेकर खाते हैं, इन श्रेष्ठ (बड़भागी) गोपबालकों गोप बालकों के हाथ से भी लेते हैं । छिपीहुई छिपी हुई गोपी यह सब देख रही है । उसके हृदय में अत्यन्त आनन्द भर रहा है, वह मग्न हो रही है । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं--श्यामसुन्दरके मुखको श्यामसुन्दर के मुख को देखकर वह थकित (निश्चेष्ट) हो रहीहैरही है, उससे कुछ कहते (बोलते) नहीं बनता, श्यामसुन्दरको श्यामसुन्दर को उसने अपना मन अर्पित कर दिया है ।