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Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार= अंजू शर्मा
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<poem>
हाँ मेरा हृदयमन
आकर्षित है
उस दृष्टि के लिए,
जो उत्पन्न करती है
मेरे हृदय मन में
एक लुभावना कम्पन,
किन्तु
जहाँ सदियाँ गुजर जाती हैं
एक राम की प्रतीक्षा में,
इस बार मुझे सीखना है
फर्क
इन्द्र और गौतम की दृष्टि का
पाषाण से स्त्री बनने
लहू-लुहान हुए अस्तित्व को
सतर करने की प्रक्रिया से,
किसी दृष्टि में
उसे थामती हूँ मैं
क्यों नहीं मानता
कि आज किसी श्राप शाप की कामना
नहीं है मुझे
कोने को
गांठ लगा ली है संस्कारों समझदारी की जगा लिया है अपनी चेतना को हाँ ये तय है
मैं अहिल्या नहीं बनूंगी!
</poem>