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{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार;<br>
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार|<br>
छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान;<br>
यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान|<br>