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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
दोज़ख़<ref> नरक</ref> सी ये दुनिया भी सुहानी है कि तुम हो
ये बारे ग़मे-ज़ीस्त उठानी है कि तुम हो

लफ़्ज़ों में वही रूहे-मुअ़ानी <ref> अर्थ-सार</ref> है कि तुम हो
ग़ज़लों में वही शोला बयानी है कि तुम हो

कुछ यूँ ही नहीं रूह में उतरी है ये ख़ुशबू
बोलो तो सही, रात की रानी है कि तुम हो

महफ़िल में ग़ज़ल पढ़ने का यारा तो नहीं है
हाँ तुमको कोई बात सुनानी है कि तुम हो

आँचल है तिरा, या के हैं सब रंग धनक के
ये वादिये-ख़ुशरंग ही धानी है कि तुम हो

अब रूख़ से नक़ाब अपने उलट दे मिरे क़ातिल
क्या फ़र्क़ है अब दुश्मने-जानी है कि तुम हो
<poem>
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