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|संग्रह=हवाओं के साज़ पर/ 'अना' क़ासमी
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<poem>
मसलहत ख़ेज़<ref>स्वार्थपूर्ण</ref> ये रियाकारी<ref>दिखावा</ref>
ज़िन्दगानी की नाज़ बरदारी

कै़सरी<ref>बादशाही</ref> तेरी मेरा दश्ते-नज्द<ref>वो जंगल जिसमें मजनूं भटकता था</ref>
अपने-अपने जहाँ की सरदारी

कैसे नादाँ हो काट बैठे हो
एक ही रौ में ज़िन्दगी सारी

हो जो ईमाँ तो बैठता है मियाँ
एक इन्साँ हज़ार पर भारी

कारोबारे जहाँ से घबराकर
कर रहा हूँ जुनूँ की तैयारी

ज़हनो-दिल में चुभन सी रहती है
शायरी है अजीब बीमारी

मुस्कुरा क्या गई वो शोख़ अदा
दिल पे गोया चला गयी आरी
<poem>
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