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नजरे अलीगढ / मजाज़ लखनवी

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सरशारे निगाहें नरगिस {{KKCatNazm}}<poem>सर शार-ए-निगाह-ऐ-नरिगस हूँ, पाबस्तए गेसुए पाबस्ता-ए-गेसू-ऐ सुंबुल हूँ।<br>यह ये मेरा चमन है, मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ<br>हूँ।
हर आन यहाँ सुहबाए सहबा-ए-कुहन, एक सागरे इक सागर-ए-नौ में ढलती है।<br>कलियों से हुस्न टपकता है, फूलों से जवानी उबलती है<br><br>है।
इस्लाम के इस बुतखने जो ताक़-ए-हरम मेंरौशन है, असनाम वो शमआ यहाँ भी हैं और आजर भी।<br>जलती है।तहजीब इस दत के इस मयखने मेंगोशे-गोशे से, शमशीर भी है और सागर भी<br><br>इक जू-ऐ-हयात उबलती है।
यॉ हुस्न की बकर् चमकती इस्लाम के इस बुत-ख़ाने में, अस्नाम भी है, याँ नूर की बारिश होती है।<br>और आज़र भी।हर आह यहाँ एक नगमा हैतहज़ीब के इस मैख़ाने में, हर अश्क यहाँ मोती शमशीर भी है<br><br>और साग़र भी।
फतरत ने सिखायी याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है है हमको, उफ्ताद यहाँ परवाज यहाँ।<br>या नूर की बारिश होती है।गाए हैं वफा के गीत हर आह यहाँएक नग़मा है, छेडा है जुनू का साज हर अश्क़ यहाँ<br><br>इक मोती है।
हर शाम है, शाम-ए-आ के हजारों बार मिस्र यहाँ, खुद आग भी हमने लगाई है।<br>हर शब है, शब-ए-शीराज़ यहाँ।फिर है सारे जहाँ ने देखा हैका सोज़ यहाँ, यह आग हमीं ने बुझाई है<br><br>और सारे जहाँ का साज़ यहाँ।
हर आह है खुद तासीर यहाँये दश्ते जुनूं दीवानों का, हर ख्वाब है खुद तदवीर यहाँ।<br>ये बज़्मे वफ़ा परवानों की।तदवीर के पाए संगी परये शहर-ए-तरब रूमानों का, झुक जाती है तकदीर यहाँ<br><br>ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की।
जर्रात का बोसा लेने कोफ़ितरत ने सिखाई है हमको, सौ बार झुका आकाश उफ़ताद यहाँ परवाज़ यहाँ।<br>खुद आँख से हमने देखी है, बातिल गाए हैं वफ़ा के शिकस्तेफाश गीत यहाँ<br><br>, छेड़ा है जुनूं का साज़ यहाँ।
इस गुल कदा पारीना में फिर आग भडकने वाली है।<br>फिर अब्र गरजने वाले हैंफ़र्श से हमने उड़-उड़कर, फिर अब्र कडकने वाली अफ़लाक के तारे तोड़े हैं।नाहीद से की है<br><br>सरगोशी, परवीन से रिश्ते जोड़े हैं।
इस बज़्म में तेगें खींची हैं, इस बज़्म में सागर तोड़े हैं।इस बज़्म में आँख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं। इस बज़्म में नेजे़ फेंके हैं, इस बज़्म में ख़ंजर चूमे हैं।इस बज़्म में गिरकर तड़पे हैं, इस बज़्म में पीकर झूमे हैं। आ-आके हज़ारों बार यहाँ, खुद आग भी हमने लगाई है।फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हम ही ने बुझाई है। याँ हमने कमंदें डाली हैं याँ हमने शबख़ूँ मारे हैं।याँ हमने क़बाएँ नोची हैं, याँ हमने ताज उतारे हैं। हर आह है ख़ुद तासीर यहाँ, हर ख़्याब है ख़ुद ताबीर यहाँ।तदबीर के पाए संगी पर, झुक जाती है तक़दीर यहाँ। ज़र्रात का बोसा लेने को, सौ बार झुका आकाश यहाँ।ख़ुद आँख से हमने देखी है, बातिल की शिकस्त-ए-फाश यहाँ। इस गुल कदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है।फिर अब्र गरजने वाला है, फिर बर्क़ कड़कने वाली है। जो अब्र यहाँ से उठेगा, वो सारे जहाँ पर बरसेगा।<br>हर जूए रवाँ जू-ऐ-रवां पर बरसेगा, हर कोहे गिरॉ गरां पर बरसेगा। हर सर्व-ओ-समन पर बरसेगा, हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा।ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा, ग़ैरों के चमन पर बरसेगा। हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा, हर क़स्रे तरब पर कड़केगा।ये अब्र हमेशा बरसा है, ये अब्र हमेशा बरसेगा।(1936)<br><br/poem>
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