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Kavita Kosh से
प्रारम्भिक काल में यह कविता रोमानी प्रवृत्ति-प्रधान रही। इसने बिना कोई विचार किए उन स्वप्नों को विस्तार के साथ अभिव्यक्ति दी जो जनता ने नेताओं के माध्यम से पाले थे, किन्तु इस प्रारम्भिक काल में भी विभाजन के परिणामस्वरूप जो पीडा राष्ट्र के हिस्से में आइ थी, वह बहुत कम अवसरों पर मुखरित हुई। धीरे-धीरे यह कविता यथार्थ प्रधान रोमानी दिशा में बढ़ती प्रतीत हुई। यह काल ’५५-५६ के आसपास शुरू होता है। इसके बाद पुनः एक बड़ा परिवर्तन उभरा और कविता का यथार्थ अतिनग्न होने लगा, यद्यपि विरूप स्थिति को एकदम उघाड़ कर रख देनेवाली बात पुष्ट तर्क के रूप में प्रस्तुत की जाती है, किन्तु केवल गाली देकर और नितान्त वस्तुवादी होकर कविता ने अपने यथार्थवादी उद्देश्य के प्रति ईमानदारी बरती है, इसमें सन्देह है। यह सन्देह इसलिए और बढ़ जाता है कि जिस समय राष्ट्र प्रत्येक ओर से दुरभिसन्धियों से घिरता जा रहा था, उस समय ये कवि रोज़ नए नामान्दोलन लेकर सामने आ रहे थे और हर नई सुबह नए मैनीफ़ैस्टो की आँख से स्थितियों को देख रहे थे। जाहिर है कि इस काल में बहुत कुछ कूड़ा-कचरा लिखा गया।
कविता की लीक एक बार बदली तो बदलती ही चली गई। इन्दिरा गाँधी के प्रधानमंत्री बनते ही बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और देश का सबसे बड़ा दल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दो भागों में बंट गया। नाटकीय राजनीति समाजवाद, धर्म निरपेक्षता, गुट निरपेक्षता, हरिजन कल्याण, अल्पसंख्यक सुरक्षा, गरीबी हटाओ, बेरोज़गारी दूर करो जैसे नारों के बल पर खुलकर खेली जाने लगी। उधर चुनावी राजनीति शुरू हुई और जातिवाद, वर्गवाद, सामुदायिकता को बिना किसी संकोच के बढ़ावा दिया गया। इस सब दशा पर प्रारम्भ में ही अंकुश लगाया जाना चहिए था, जो सही कलमकारों का दायित्व था, किन्तु हम देखते हैं कि ऐसा नहीं किया गया। जिन रचनाकारों ने कुछ तीखी बात कही, उन्हें जैसे न सुनने देने का संकल्प ही कर लिया गया, बाक़ी जिन्हे सुना और प्रसारित किया गया, वे नए राजाओं की शान में कसीदे लिखने वाले लोग थे। सारे देश ने देखा कि भारत-बंगलादेश युद्ध में भारतीय जवानों ने अपने रक्त से जो विजयश्री प्राप्त की, उसे शिमला में समझौते की मेज़ पर भुट्टो की झोली में डाल देनेवाले नेताओं को भी महान विभूति कहकर अनेक रचनाएं लिखी गईं। जनता ने खून के घूंट तो उस समय पिए, जब २६ जून १९७५ को सारे देश में ‘आपात स्थिति’ लागू कर दी गई और राष्ट्र को बहुत बड़ी जेल में बदल दिया गया। उस समय रचनाकारों की बहुत बड़ी जमात ने पुरानी दरबारी परम्परा को पुनर्जीवित किया। उसने उन कुछ गिनेचुने लेखकों पर कोई ध्यान नहीं दिया जो आपात स्थिति विरोधी आवाज़ उठाकर सींखचों के पीछे चले गए थे। इस जमात का मुख्य काम था, सत्ता द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य का आँख बन्द करके समर्थन करना, भारत की भाग्यविधाता के रूप में प्रधानमंत्री को देखना, अनुशासन पर्व के नाम पर जनता के उत्पीड़न का समर्थन करना, चिन्तन की स्वतंत्रता का विरोध करना, समाचार पत्रों पर लगे सेन्सर को ठीक बताना और एक व्यक्ति की तानाशाही के प्रति समर्पित होना। बदले मे इस जमात के सदस्यों को सरकारी प्रतिनिधि मण्डलों की सदस्यता, विदेश भ्रमण की सुविधा और सरकारी पुरस्कार प्राप्त हुए। लगता था, कोई प्राचीन राजा अपने दरबारियों को तमगों के टुकड़े डाल रहा हो और दरबारी ‘हें हें’ करके खींसे निपोर रहे हों। कविता की इस भूमिका को कौन सुचिन्तक समय-सापेक्ष मान सकता है?
व्यक्ति के सम्बन्ध में तेवरी की मान्यता है कि व्यक्ति की स्वतंत्र सत्ता है किन्तु उसे विभिन्न दुरभिसन्धियों के अजगरों ने जकड़ लिया है। इन दुरभिसन्धियों को छिन्न-भिन्न करके उस व्यक्ति को खोजना है जो साधारण मनुष्य है। स्मरणीय है कि यही व्यक्ति मानवीय स्वतंत्रता की लड़ाई का सैनिक है।
समाज व राष्ट्र के सम्बन्ध में यह बात बहुत स्पष्ट है कि आज ऐसे समाज की आवश्यकता नहीं है जो परम्परागत विरोधों को प्रश्रय दे रहा हो बल्कि तेवरी का लक्ष्य ऐसे समाज का गठन करना है जो प्रगतिशील हो और मुक्त वातावरण का हामी हो। राष्ट्रीयता की दृष्टि से भी उस राष्ट्रीय संवेदना को प्राप्त करना आवश्यक है, जो अपने साथ-साथ विश्व के धरातल से भी जोड़े। *** *** *** ***
आधुनिक जीवन को प्रभावित करनेवाले विविध तत्व हैं जैसे धर्म, राजनीति, समाजनीति, आर्थिक संरचना, संस्कृति और विश्वयुद्ध की सम्भावना आदि। इन सबने आधुनिक मनुष्य की विचारधारा और जीवन-पद्धति को प्रभावित किया है। यह प्रभाव दो रूपों में सामने आया है। एक- मनुष्य भय की स्थिति से घिरा है और दूसरे- उसके भीतर असंतोष, आक्रोश और विद्रोह पनपा है। तेवरी इनमें से किसी की उपेक्षा नहीं करती, बल्कि यह मानती है कि मनुष्य के भीतर पनपने वाली इस विचारधारा को बिना किसी छुपाव के सामने लाया जाना चाहिए।
अपनी इस भूमिका में तेवरी जनजागरण के उद्देश्य को पूर्ण करती है और यही उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है।
तेवरी के रचना विधान में भाग लेने वाले- भाषा, प्रतीक, बिम्ब, छन्द आदि- तत्व विशेष प्रकृति के हैं।
तेवरी मात्रिक या वर्णिक छन्द में कही जाती है, यह छन्द प्रथम, द्वितीय तथा सभी समपंक्तियों में तुकान्त होता है। तेवरी काव्यान्दोलन के लिए तुकान्त छन्द अपनाने का कारण है- कविता की पहुँच को बढ़ाना। यह आन्दोलन अनुभव करता है कि जन-जागृति का लक्ष्य तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि कविता स्मरण योग्य रूप में न रची जाए। साथ ही, कविता का यह भी दायित्व है कि वह रचे जाने के साथ-साथ पाठक भी स्वयं ही तैयार करे, इसके लिए उसमें पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति होना आवश्यक है और यह छन्दोबद्धता और तुकान्तता में निहित है। आज भी व्यापक जनमानस में जो कविताएं अपना स्थान बनाए हुए है, उनके पीछे छन्द और तुक बहुत बड़ी शक्ति के रूप में हैं। अतः छन्द और तुक को स्वीकार करके यह काव्यान्दोलन जागृति के संस्कार बोने में सफलता प्राप्त करना चाहता है।
तेवरी के शिल्प के सम्बंध में बात करते समय यह स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि उर्दू की काव्य विधा गज़ल और तेवरी को लेकर कोई विवाद खड़ा नहीं किया जाना चाहिए। सरसरी तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि गज़ल और तेवरी का स्वरूप एक सा है, किन्तु गम्भीर रूप से देखने पर दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। गज़ल का जो अनुशासन है, वह अपनी परम्परा से अब तक बिना किसी परिवर्तन के बँधा चला आ रहा है, उसका प्रत्येक शेर अपने में स्वतंत्र होता है और उसकी विषयवस्तु बहुत कुछ असंबद्ध होती है, जबकि तेवरी का प्रत्येक ‘तेवर’ स्वतन्त्रता का आभास देता हुआ भी मूल विषयवस्तु से सम्बद्ध होता है। रचना के प्रारम्भ में किसी विषयवस्तु को उठाया जाता है और जैसे-जैसे नए तेवर जुड़ते जाते हैं वैसे-वैसे वह विषयवस्तु विकास प्राप्त करती चली जाती है, अन्त तक आते-आते रचना का प्रभाव अपनी समय सम्बद्धता को स्पष्ट कर देता है और इस प्रकार पाठक विशेष मानसिक प्रभाव को ग्रहण करता है। इस समूची प्रक्रिया में तेवरी की अपनी मौलिक देन यह है कि वह पाठकीय संचेतना को बाँध लेती है जबकि गज़ल में यह संचेतना बहुत कुछ विश्रंखलित हो जाती है।
वैसे भी गज़ल की मानसिकता कोमल-सौंदर्य प्रधान संचेतना से जुड़ी हुई है[जहाँ भी उर्दू गज़ल अपने इस दायरे को तोड़कर बाहर आयी है, वहीं उसका स्वरूप विचित्र सा हो गया है। यही कारण है कि उसकी प्रासंगिकता को प्रश्नांकित होने से बचाने के लिए गज़ल के हामी ‘किसी शेर का अर्थ कहीं भी जोड़ा जा सकता है’, कहते नज़र आते हैं। वास्तव में यह कोई वज़नदार तर्क नहीं है।] तेवरी के साथ इस प्रकार की मजबूरी नहीं है। उसकी दृष्टि में सौन्दर्य उस विशेष रचनादृष्टि के भीतर से जन्म लेता है, जिसे कवि अपने युग के यथार्थ वातावरण से प्राप्त करता है। आज का जो भी यथार्थ है, वही रचना की सौन्दर्य-चेतना का सृष्टा है। इससे अलग होकर तेवरी नहीं चलना चाहती।
तेवरी काव्यान्दोलन के माध्यम से हम गम्भीरता के साथ दायित्व के प्रश्न को उठाना चाहते हैं। कविता मनुष्य को उसके उत्तरदायित्व से जोड़ती है। व्यक्ति से लेकर विश्व तक का विविध-पक्षीय जीवन कैसा है, संचालक व्यवस्था द्वारा किस-किस प्रकार की कार्य-प्रणालियाँ अपनाई गई हैं, विकास के अवसरों का उपयोग किस प्रकार किया जा रहा है, सामजिक परिवर्तन किस रूप में घट रहे हैं, विज्ञान की क्षमता को विश्व के अलग-अलग वर्ग किस रूप में प्रयोग कर रहे हैं, ग्रामीण और नगरीय जीवन का सम्बन्ध कैसा है, मनुष्य के शोषण के स्त्रोत क्या-क्या हैं, स्थायी शान्ति के मार्ग की बाधाएँ क्या हैं - आदि अनेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनका सम्बन्ध सम्पूर्ण मानवजीवन से है। अतः यह आवश्यक है कि अब तक इन प्रश्नों पर होनेवाली ‘फ़ाइव स्टार होटल’ या ‘कवेन्शनहाल’ मार्का बहस को खुले आसमान के नीचे लाया जाए। इसके लिए विशेष वर्गों के वर्चस्व को तिलांजलि देकर इसमें सामान्य आदमी की भागीदारी को स्वीकार करना पड़ेगा। केवल ऐसा करके ही- उन सर्व-स्वीकृत निष्कर्षों तक पहुँचा जा सकेगा, जो सत्य और व्यावहारिकता के निकट होंगे तथा विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल होंगे। इस समूची प्रक्रिया से सामन्य आदमी को दयित्व-बोध भी दिया जा सकेगा। जब वह इन सारे प्रश्नों से सीधा साक्षात्कार करेगा तो उसके भीतर की रचनात्मकता जागेगी, यही उसे सगज और दायित्वपूर्ण बनाएगी। इस सम्बन्ध में कविता की भूमिका यह है कि वह एक ओर तो भयावह रहस्यात्मकता को तोड़कर उपयुक्त वातावरण बनाए, दूसरी ओर समाज के प्रत्येक सदस्य के भीतर भागीदारी की चेतना को जगाए। तेवरी इस कार्य को अपने प्राथमिक कार्यों की सूची में स्थान देती है।
इसके साथ ही हम यह भी कहना चाहते हैं कि तेवरी काव्यान्दोलन से जुड़े हुए रचनाकार प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी के सवाल से जूझनेवाले हैं। उनकी दृष्टि में जागरण को वेदमन्त्रों की भांति ईश्वरीय विधान के अन्तर्गत प्राप्त नहीं किया जा सकता, न उपदेश, आदेश और कीर्तनों में उसे ढूँढा जा सकता है। उसे केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि उन लोगों से भाईचारा स्थापित किया जाए जिनके बीच उसे फैलाना है। उन लोगों में अपने को घुला-मिला लिया जाए जो उसके सच्चे वाहक हैं, वह ऐसे संकल्प समर्पित कार्यकर्ताओं की है जो अपना अलग वर्ग नहीं बनाते, बल्कि अपने को उस वर्ग के एक सदस्य के रूप में देखते हैं जिसके लिए कविता लिखी जा रही है। ऐसा करके यह आन्दोलन कविता और कवि दोनों को जनता की वस्तु बनाना चाहता है।
तेवरी काव्यान्दोलन का क्षेत्र व्यापक है--