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प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नामके एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत १५५४ की श्रावण शुकला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान् दम्पति के यहाँ बारह महीने तक गर्भ में रहने के पश्चात् गोस्वामी जी का जन्म हुआ ।
इधर भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला है।) ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शुक्ला पञ्चमी शुक्रवारको उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्याही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धी बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हे वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों सूकरक्षेत्र (सोरों) पहुंचे। वहाँ श्रीनरहरी जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत् हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान् राम की कथा सुनाने लगे।
संवत् १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरुवारको भारद्वाज गोत्र की एक सुन्दरी कन्याके साथ उनका विवाह हुआ और वे सुखपूर्वक अपनी नवविवाहिता वधूके साथ रहने लगे। एक बार उनकी स्त्री भाईके साथ अपने मायके चली गयी। पीछे-पीछे तुलसीदासजी भी वहाँ जा पहुँचे। उनकी पत्नीने इसपर उन्हें बहुत धिक्कारा और कहा कि 'मेरे इस हाड़-मांसके शरीरमें जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान्में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता'।
तुलसीदासजी को ये शब्द लग गये। वे एक क्षण भी नहीं रुके, तुरंत वहाँसे चल दिये। वहाँसे चलकर तुलसीदासजी प्रयाग आये। वहाँ उन्होंने गृहस्थवेशका परित्याग कर साधुवेश ग्रहण किया। फिर तीर्थाटन करते हुये काशी पहुँचे। मानसरोवर के पास उन्हें काकभुशुण्डिजी के दर्शन हुए।
काशी में तुलसीदास जी रामकथा कहने लगे। वहाँ उन्हें एक दिन एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्रीरघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा, 'तुम्हे चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होंगे।' इसपर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
तुलसीदासजीको ये शब्द लग गये। वे एक क्षण भी नहीं रुके, तुरंत वहाँसे चल दिये। वहाँसे चलकर तुलसीदासजी प्रयाग आये। वहाँ उन्होंने गृहस्थवेशका परित्याग कर साधुवेश ग्रहण किया। फिर तीर्थाटन करते हुये काशी पहुँचे। मानसरोवर के पास उन्हें काकभुशुण्डि के दर्शन हुए।
==श्रीरामसे श्रीराम से भेंट==काशी में तुलसीदास जी रामकथा कहने लगे। वहाँ उन्हें एक दिन एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास जी ने उनसे श्रीरघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्राथना की। हनुमान जी ने कहा, 'तुम्हे चित्रकूट में रघुनाथ जी दर्शन होंगे।' इसपर इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुँचकर पहुँच कर राम घाट पर उन्होंने अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले थे। मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास जी उन्हें देखकर देख कर मुग्ध हो गये, परंतु उन्हें पहचान न सके। पीछे से हनुमान जी ने आकर उन्हें सारा भेद बताया तो वे बड़ा पश्चाताप करने लगे। हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् १६०७ की मौनी अमावस्या बुधवार के दिन उनके सामने भगवान् श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालकरूप बालक-रूप में तुलसीदास जी से कहा--बाबा! हमें चन्दन दो। हनुमान जी ने सोचा, वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा-<br>
'''चित्रकूट के घाट पर भयि संतन की भीर।''' <br>
'''तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर॥'''<br>
तुलसीदास जी उस अद्भुत छवि को निहारकर निहार कर शरीर की सुधि भूल गये। भगवान ने अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्धान हो गये।
==संस्कृत में पद्य-रचना==
संवत १६२८ में ये हनुमान जी की आज्ञा से अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनो प्रयाग में माघ मेला था। वहाँ कुछ दिन वे ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष वट-वृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र सूकर-क्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। वहाँ से ये काशी चले आये और वहाँ प्रह्लादघाट प्रह्लाद-घाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहाँ उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परंतु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज रोज़ घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान् शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषामें भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर उठ कर बैठ गये। उसी समय भगवान् शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया। शिवजी शिव जी ने कहा- 'तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिंदी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।' इतना कह कर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से अयोध्या चले आये।
==रामचरितमानस की रचना==
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। उस दिन राम-नवमी के दिन प्रायः वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग त्रेता-युग में रामजन्म राम जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल श्रीतुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने, छ्ब्बीस दिनमें दिन में ग्रन्थ की समाप्ति हुई। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।[[चित्र:Tulsidas2.jpg|right]]
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक श्रीविश्वनाथ श्री विश्वनाथ जी के मन्दिर में रख दी गयी। सबेरे जब सवेरे पट खोला गया तो उस पर लिखा हुआ पाया गया- ''''सत्यं शिवं सुन्दरम्'''' और नीचे भगवान् शंकर की सही थी। उस समय उपस्थित लोगोंने '''लोगों ने "'सत्यं शिवं सुन्दरम्'''' की आवाज भी कानों से सुनी।
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँध कर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण धनुष-बाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा सामान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा।
इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
'''कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥'''
'इस काशीरूपी आनन्दवनमें तुलसीदास चलता-फिरता तुलसीका तुलसी का पौधा है। उसकी कवितारूपी कविता-रूपी मञ्जरी बड़ी ही सुन्दर है, जिसपर श्रीरामरूपी जिस पर श्रीराम-रूपी भँवरा सदा मँडराया करता है।'
पण्डितों को इस पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक उपाय और सोचा गया। भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो पण्डित लोग बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति से उनका चरणोदक लिया।
==मृत्यु==
तुलसीदास जी अब असी-घाट पर रहने लगे। रात को एक दिन कलियुग मूर्तरूप धारणकर धारण कर उनके पास आया और उन्हें त्रास देने लगा। गोस्वामी जी ने हनुमान जी का ध्यान किया। हुनुमान जी ने उन्हें विनय के पद रचने को कहा; इस पर गोस्वामी जी ने विनय-पत्रिका लिखी और भगवान के चरणों में उसे समर्पित कर दी। श्रीराम ने उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
संवत् १६८० श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को गोस्वामी जी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।