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जीवन का मालिन्य आज मैं हम एक हैं। हमारा प्रथम मिलन बहुत पहले हो चुका- इतना पहले कि हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। हम जन्म-जन्मान्तर के प्रणयी हैं।फिर इतना वैषम्य क्यों धो डालूँ?उर क्या इतने कल्पों में संचित कलुषनिधि को क्यों खो डालूँ?कहाँ, कौन है जिस को है मेरी भी कुछ परवाहहम एक-जिस के उर में मेरी कृतियाँ जगा सकें उत्साहदूसरे को नहीं समझ पाये?विश्व-नगर की गलियों प्रेम में खोये कुत्तेतो अनन्त सहानुभूति और प्रज्ञा होती है, वह तो क्षण-साझंझा की प्रमत्त गति भर में उलझे पत्ते-साहटोपरस्पर भावों को समझ लेता है, आज इस घृणा-पात्र को जाने फिर इतने दीर्घ मिलन के बाद भी दो टूट-भव-बन्धन से साभिमान ही पा लेने दो छूट!यह अलगाव का भाव क्यों?
'''दिल्ली जेल, 23 अक्टूबर17 जुलाई, 1932'''
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