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चाहता हूँ / बोधिसत्व

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बड़ी अजीब बात है<br>
जहाँ नहीं होता<br>
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,<br><br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}  सूर्य उगा वह मानो मेरा भाग्य उगा !<br>उसे जानते मैं ने पति को<br>अपने वश में किया,<br>विजयिनी शक्ति रूप हूँ,<br>मैं मस्तक की भाँति मुख्य हूँ ध्वजा-रूप हूँ !<br><br> मेरा पति मेरी सहमति को<br>सर्वोपरि महत्व देता है,<br>मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं, पुत्री रानी;<br><br> मेरा पति मेरे प्रति उत्तम श्लोक-प्रशंसा करता है;<br>अत: हमारा दाम्पत्य जीवन सुंदर है,<br>सूर्योदय के साथ हमारा<br>भाग्य उदय होता है प्रतिदिन !<br><br> {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}  छोटी-छोटी बातों पर<br>नाराज हो जाता हूँ ,<br>भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,<br>जोड़ता रहता हूँ<br>पाई-पाई का हिसाब<br><br> छोटा आदमी हूँ<br>बड़ी बातें कैसे करूँ ?<br><br> माफी मांगने पर भी<br>माफ़ नहीं कर पाता हूँ<br>छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।<br><br> पाव भर दूध बिगड़ने पर<br>कई दिन फटा रहता है मन,<br>कमीज पर नन्हीं खरोंच<br>देह के घाव से ज्यादा<br>देती है दुख ।<br><br> एक ख़राब मूली<br>बिगाड़ देती है खाने का स्वाद<br>एक चिट्ठी का जवाब नहीं<br>देने को याद रखता हूं उम्र भर<br><br> छोटा आदमी और कर ही क्या सकता हूँ<br>सिवाय छोटी-छोटी बातों को याद रखने के ।<br><br> सौ ग्राम हल्दी,<br>पचास ग्राम जीरा<br>छींट जाने से तबाह नहीं होती ज़िंदगी,<br>पर क्या करूँ<br>छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ<br>हर अपने बेगाने को सुनाता रहता हूँ<br>अपने छोटे-छोटे दुख ।<br><br> क्षुद्र आदमी हूँ<br>इन्कार नहीं करता,<br>एक छोटा सा ताना,<br>एक मामूली बात,<br>एक छोटी सी गाली<br>एक जरा सी घात<br>काफी है मुझे मिटाने के लिए,<br><br> मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ<br>हल्की हवा भी बहुत है<br>मुझे बुझाने के लिए।<br><br> छोटा हूँ,<br>पर रहने दो,<br>छोटी-छोटी बातें कहता हूँ- कहने दो ।<br><br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}} अल्लापुर<br>इलाहाबाद का वह मुहल्ला<br>जहाँ सायकिल चलाते या<br>पैदल हम घूमा करते थे।<br><br> वहीं रहती थीं वो लड़कियाँ<br>जिन्हें देखने के लिए<br>फेरे लगाते थे हम दिन भर।<br><br> मटियारा रोड पर रहती थीं<br><br>पूनम, रीता, ममता, वंदना<br>नेताजी रोड पर<br>चेतना, कविता, शिवानी।<br>कस्तूरबा लेन में रहती थीं<br>ऋचा, सुमेधा, अंजना, संध्या।<br><br> बाघम्बरी रोड पर रहती थी<br>एक लड़की<br>जो अक्सर आते-जाते दिखती थी<br>वह शायद प्राइवेट पढ़ती थी।<br><br> बड़ी आँखे-बड़े बाल<br>अजब चेहरा मंद चाल।<br><br> दिन भर खड़ी रहती थी छत पर<br>कपड़े सुखाती अक्सर,<br>हजार कोशिशों के बाद भी<br>नहीं पता चला<br>उसका नाम - पोस्ट ऑफिस में करता था उसका पिता काम<br>हालाँकि<br>यह वह वक्त था जब हम<br>लड़कियों के नोट बुक के सहारे<br>जान लेते थे उनके सपनों को भी।<br><br> हजार कोशिशों पर<br>पानी फिरा यहाँ......<br><br> बाद में पता चला<br>वह ब्याही गई एक तहसीलदार से<br>शिवानी की शादी हुई वकील से<br>वंदना की दारोगा से, रीता की बैंक क्लर्क से,<br>चेतना की कस्टम इंस्पेक्टर से,<br>संध्या विदा हुई रेल टी.टी. के साथ<br>सुमेधा किसी डॉक्टर के साथ<br>ऋचा किसी व्यापारी की हुई ब्याहता<br>अंजना किसी कम्पाउंडर की,<br>पूनम की शादी हुई किसी दूहाजू कानूनगो से।<br><br> ममता की शादी नहीं हुई<br>बहुत दिनों.....<br>देखने-दिखाने के आगे बात नहीं बढ़ी...।<br><br> कई साल बीत गये हैं<br>टूट गया है इलाहाबाद से नाता<br>छूट गया है अल्लापुर....<br>दूर संचार के हजारों इंतजाम हैं पर<br>नहीं मिलती ममता की कोई खबर,<br>उसकी शादी हुई या बैठी है घर,<br>अब तो किसी से पूछते भी लगता है डर।<br><br> कैसा समाज है, कैसा समय है,<br>जहाँ मुहल्ले की लड़कियों का<br>हाल-चाल जानना गुनाह है,<br>व्यभिचार है,<br>पर क्या ममता के हाल-चाल की<br>मुझे सचमुच दरकार है ?<br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}   तमाशा हो रहा है<br>और हम ताली बजा रहे हैं<br><br> मदारी<br>पैसे से पैसा बना रहा है<br>हम ताली बजा रहे हैं<br><br> मदारी साँप को<br>दूध पिला रहा हैं<br>हम ताली बजा रहे हैं<br><br> मदारी हमारा लिंग बदल रहा है<br>हम ताली बजा रहे हैं<br><br> अपने जमूरे का गला काट कर<br>मदारी कह रहा है-<br>'ताली बजाओ जोर से'<br>और हम ताली बजा रहे हैं।<br><br> {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}} आज पंद्रह अगस्त<br>ईसवी सन दो हजार सात है<br>मैं घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ<br>कुछ काम है<br>अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है<br>ट्रैफिक जाम है<br>घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में<br>कुछ देर पहले बरसा है पानी<br>सड़क अभी तक गीली है।<br><br>  बहुत सारे बच्चों<br>छोटे-छोटे बच्चों के साथ<br>एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।<br>एक दस साल का लड़का<br>एक सात साल की लड़की<br>एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा<br>इन सब के साथ ही<br>यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।<br><br>  उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच<br>आँख में चमक से ज्यादा है कीच<br>नंगे पाँव में फटी बिवाई है<br>यह किसकी बहन बेटी माई है ?<br>यह किस घर पैदा हुई<br>कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?<br><br>  परसों तक बेच रही थी<br>टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च<br>उसके पहले कभी बेचती थी कंघी<br>कभी चूरन कभी गुब्बारे।<br><br>  कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास<br>कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास<br><br> उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए<br>हर एक से गिड़गिड़ाती<br>कभी दिखा कर पिचका पेट<br>लगा रही है खरीदने की गुहार<br>कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख<br>ऐसे जैसे झंडे के बदले<br>मांग रही है भीख।<br>  मैं आगे निकल आया हूँ<br>पीछे घिरे हैं काले-काले बादल<br>बरस सकता है पानी<br>भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है<br>अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।<br><br> सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया<br>कलेजे से लगा कर <br>बचा रही रही होगी झंडे की चमक को<br>और पुकार रही होगी लगातार <br>हर एक को-<br><br> ‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’<br><br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}} बाबा नागार्जुन !<br>तुम पटने, बनारस, दिल्ली में<br>खोजते हो क्या<br>दाढ़ी-सिर खुजाते<br>कब तक होगा हमारा गुजर-बसर<br>टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।<br><br> तुम्हारी यह चीलम सी नाक<br>चौड़ा चेहरा-माथा<br>सिझी हुई चमड़ी के नीचे<br>घुमड़े खूब तरौनी गाथा।<br><br> तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक<br>सच्चे मेंठ<br>घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर<br>मानुष ठेंठ।<br><br> मिलना इसी जेठ-बैसाख<br>या अगले अगहन,<br>देना हमें हड्डियों में<br>चिर-संचित धातु गहन।<br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}} (कलकत्ता में मिले बंगाली विद्वान परिमलेंदु ने यह वृत्तांत सुनाया)<br><br> बरस रहा था देर से पानी<br>भीगने से बचने के लिए मैं<br>रुका था दक्षिण कलकत्ता में<br>एक पेड़ के नीचे,<br>वहीं आए पानी से बचते-बचाते<br>परिमलेंदु बाबू।<br><br> परिमलेंदु बाबू<br>टैगोर के भक्त थे<br>बात-चीत के बीच<br>उन्हों नें बताया टैगोर के बारे में एक किस्सा<br>आप भी सुनें।<br><br> कभी बीरभूम में चार औरतें रहतीं थीं<br>उन्हें देख कर लगता था कि वे या तो<br>किसी मेले में जा रहीं हैं<br>या लौट रहीं हैं किसी जंगल से।<br><br> वे चारों हरदम साथ रहतीं थीं<br>उनकी आँखें नहीं थीं<br>वे बनीं थीं मिट्टी में कपास और भूँसी मिला कर<br>उनसे आती थी भुने अन्न की महक।<br><br> चारों दिखतीं थी एक सी<br>एक सी नाक<br>एक से हाथ-पांव-कान<br>एक सी थी बोली उनकी।<br><br> कौन था उनका जनक<br>कौन भर्ता, कौन पुत्र कौन जननी कौन पुत्री<br>नहीं जानतीं थीं वे<br>उन्हें तो यह भी नहीं पता था ठीक-ठीक<br>कि किसने छीन<br>लीं उनकी आँखें।<br><br> पर उन्हें यह पता था कि<br>उनके पीछे-पीछे चलते हैं ठाकुर<br>वही ठाकुर जिन्हें सब<br>गुरुदेव कह कर बुलाती है<br>वही द्वारका ठाकुर का आखिरी बेटा<br>वही जिसे हाथी पाव है<br>तो वे चारों औरतें<br>टैगोर के लिए थोड़ा धीमें चलतीं थीं वे।<br><br> उन औरतों की आवाज के सहारे<br>टैगोर खोजते-पाते थे रास्ता<br>टैगोर भी हो चले थे अंधे<br>लोग हैरान थे<br>टैगोर के अचानक अंधेपन पर।<br><br> लोग टैगोर को उन औरतों से अलग<br>ले जाना चाहते थे<br>गाड़ी में बैठा कर<br>पर टैगोर<br>उन औरतों की आवाज के अलावा<br>सुन नहीं रहे थे और कोई आवाज।<br><br> जब कभी टैगोर छूट जाते थे बहुत पीछे<br>किसी बहाने रुक कर वे चारों<br>उनके आने का इंतजार करतीं थीं।<br><br> जोड़ा शांको और बीरभूम के लोग बताते हैं<br>कि जीवन भर टैगोर चलते रहे<br>उन चारों औरतों की आवाज के सहारे<br>जब बिछुड़ जाते थे उन औरतों से तो<br>आव-बाव बकने लगते थे<br>बिना उन औरतों के उन्हे<br>कल नहीं पड़ता था<br>अब यह सब कितना सच है<br>कितना गढ़ंत यह कौन विचारे।<br><br> यह जरूर था कि<br>अक्सर पाए जाते थे<br>टैगोर उन अंधी औरतों के पीछे-पीछे चलते<br>उनके गुन गाते<br>बतियाते उनके बारे में।<br> बूढ़े परिमलेंदु की माने तो<br>वे औरते जीवन भर नहीं गईं कहीं ठाकुर<br>को छोड़ कर<br>ठाकुर ही उन औरतों का जीवन थे<br>और वे औरतें ही ठाकुर के चिथड़े मन की<br>सीवन थीं।<br><br> जब नहीं रहे टैगोर<br>तो महीनों वे चारों ठाकुर की खोज में<br>घूमती रहीं बीरभूम के खेतों में<br>रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि<br>आ सकता है अंधा गुरु<br>पर न आए ठाकुर<br>और वे अंधी औरतें पहुँच गईं<br>पता नहीं कब<br>सोना गाछी की गलियों में,<br><br> उन्हें तो यह भी पता नहीं चल पाया<br>कि उनका ठाकुर कब कहाँ<br>खो गया<br>कहाँ सो गया उनका सहचर<br>कल सुबह आता हूँ कह कर<br>नहीं आया वह<br>जिसके होने से वे सनाथ थीं।<br><br> पानी बरसना बंद हुआ जान कर परिमलेंदु बाबू<br>बात अधूरी छोड़ गए<br>मैंने शलभ श्रीराम सिंह से पूछा तो वे<br>रोने लगे<br>कहा सारी बात सच है<br>पर हुआ था यह सब<br>राम कृष्ण परम हंस के साथ,<br>वे चारों अंधी नहीं थीं<br>वहाँ के किसी जमींदार ने फोड़ दीं थीं<br>उनकी आँखें काट लिए थे हाथ<br>खेतों की रखवाली ठीक से ना करने पर।<br>अंधी होने के बाद वे<br>हरदम रहीं बेलूर मठ में<br>परम हंस के साथ।<br>उसके बाद परम हंस ही थे<br>उनकी आँखें और हाथ।<br> {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}  पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे<br>वे हर मिलने वाले से कहते कि<br>बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।<br><br> वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो<br>किराने की दुकान पर।<br><br> उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी<br>सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की<br>पर कुछ भी काम नहीं आया।<br><br> माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी<br>मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक<br>सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को<br>ध्रुव तारे की तरह<br>अटल करने के लिए<br>पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।<br><br> 1997 में<br>जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया<br>बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का<br>पूरी बाँह का स्वेटर<br>उनके सिरहाने बैठ कर<br>डालती रही स्वेटर<br>में फंदा कि शायद<br>स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,<br>भाई ने खरीदा था कंबल<br>पर सब कुछ धरा रह गया<br>घर पर ......<br><br> बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।<br><br> पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे<br>दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं<br>1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक<br>पर देह ने नहीं दिया उनका साथ<br>दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।<br><br> इच्छाएँ कई और थीं पिता की<br>जो पूरी नहीं हुईं<br>कई और सपने थे ....अधूरे....<br>वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे<br>पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल<br>हार गए पिता<br>जीत गया काल ।<br><br><br> (रचना तिथि- 13 अक्टूबर 2007}br><br>  {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=बोधिसत्व|संग्रह=}}   वह बहुत पुरानी एक रात<br>जिसमें सम्भव हर एक बात,<br>जिसमें अंधड़ में छुपी वात,<br>सोई चूल्हे में जली रात,<br>वह बहुत पुरानी बिकट रात ।<br><br> जिसमें हाथों के पास हाथ,<br>जिसमें माथे को छुए माथ,<br>जिसमें सोया वह वृद्ध ग्राम,<br>महुआ,बरगद,पीपल व आम,<br>इक्का-दुक्का जलते चिराग<br>पत्तल पर परसे भोग-भाग ।<br><br> वह बहुत पुरानी एक बात,<br>जिसमें धरती को नवा माथ,<br>वो बीज बो रहे चपल हाथ,<br>वो रस्ते जिन पर एक साथ<br>जाता था दिन आती थी रात<br>वह बहुत पुरानी एक रात ।<br><br>
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