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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=हरी घास पर क्षण भर / अज्ञेय
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<Poem>
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता हैहै।
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता हैह॥
इन्हीं में लहरती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।
'''राँची-मुरी (बस में), 6 फरवरी, 1949'''
</Poem>