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लाल्टू
,१
वह जो बार बार पास आता है<br>क्या उसे पता है वह क्या चाहता है<br><br>
वह जाता है<br>लौटकर नाराज़गी के मुहावरों <br>के किले गढ़<br>भेजता है शब्दों की पतंगें<br><br>
मैं समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ<br>क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ<br><br>
जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है<br>वैसे ही लिखनी है उस पर भी<br>मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की <br> चाँदनी में लौटते हुए <br>एक चाँद उसके लिए देखता हूँ<br><br>
चाँदनी हम दोनों को छूती<br>पार करती असंख्य वन-पर्वत<br>बीहड़ों से बीहड़ इंसानी दरारों <br>को पार करती चाँदनी<br><br>
उस पर कविता लिखते हुए <br>लिखता हूँ तांडव गीत<br>तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो।<br><br>
२
कराची में भी कोई चाँद देखता है<br>युद्ध सरदार परेशान<br>ऐेसे दिनों में हम चाँद देख रहे हैं<br><br>
चाँद के बारे में सबसे अच्छी खबर कि<br>वहाँ कोई हिंद पाक नहीं है<br>चाँद ने उन्हें खारिज शब्दों की तरह कूड़ेदानी में फेंक दिया है।<br><br>
आलोक धन्वा, तुम्हारे जुलूस में मैं हूँ, वह है<br>चाँद की पकाई खीर खाने हम साथ बैठेंगे<br>बगदाद, कराची, अमृतसर, श्रीनगर जा जा<br>अनधोए अंगूठों पर चिपके दाने चाटेंगे।<br><br>
३
चाँद से अनगिनत इच्छाएँ साझी करता हूँ<br>चाँद ने मेरी बातें बहुत पहले सुन ली हैं<br>फिर भी कहता हूँ<br>और चाँद का हाथ<br>अपने बालों में अनुभव करता हूँ<br><br>
चाँद ने कागज कलम बढ़ाते हुए<br>कविताएँ लिखने को कहा है<br>सायरेन बज रहा है। <br><br>
४
मेरे लिए भी कोई सोचता है<br>अँधेरे में तारों की रोशनी में उसे देखता हूँ<br>दूर खिड़की पर उदास खड़ी है। दबी हुई मुस्कान<br>जो दिन भर उसे दिगंत तक फैलाए हुए थी<br>उस वक्त बहुत दब गई है।<br><br>
अनगिनत सीमाओं पार खिड़की पर वह उदास है।<br>उसके खयालों में मेरी कविताएँ हैं। सीमाएँ पार <br>करते हुए गोलीबारी में कविताएँ हैं लहूलुहान।<br><br>
वह मेरी हर कविता की शुरुआत।<br>वह काश्मीर के बच्चों की उदासी।<br>वह मेरा बसंत, मेरा नवगीत, <br>वह मुर्झाए पौधों के फिर से खिलने सी।<br><br>
५
वह जो मेरा है<br>मेरे पास होकर भी मुझ से बहुत दूर है।<br>पास आने के मेरे उसके खयाल<br>आश्चर्य का छायाचित्र बन दीवार पर टँगे हैं,<br>द्विआयामी अस्तित्व में हम अवाक देखते हैं<br>हमारे बीच की ऊँची दीवार।<br><br>
ईश्वर अल्लाह तेरे नाम<br>अनजान लकीर के इस पार उस पार <br>उँगलियाँ छूती हैं<br>स्पर्श पौधा बन पुकारता है<br>स्पर्श ही अल्लाह, स्पर्श ही ईश्वर।<br><br>
६
मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?<br>मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण।<br>ग्रहों को पार कर मैं आया हूँ<br>एक भरपूर जीवन जीता बयालीस की बालिग उम्र<br>देख रहा हूँ एक बच्चे को मेरा सीना चाहिए<br><br>
उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँ<br>मेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरंभ है<br>मेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता है<br>सुनता हूँ बसंत के पूर्वाभास में पत्तियों की खड़खड़ाहट<br>दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास में<br>आश्चर्य मानव संतान<br>अपनी संपूर्णता के अहसास से बलात् दूर<br>उँगलियाँ उठाता है, माँगता है भोजन के लिए कुछ पैसे।<br><br>
७
मुड़ मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ।<br>सन् २००० में मेरी दाढ़ी खींचने पर धू धू लपटें उसे घेर लेंगीं।<br>मेरी नियति पहाड़ बनाने के अलावा और कुछ नहीं।<br>उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ।<br>उड़नखटोले पर बैठते वक्त वह मेरे पास होगा।<br><br>
युद्ध सरदारों सुनो! मैं उसे बूँद बूँद अपने सीने में सींचूँगा। <br>उसे बादल बन ढक लूँगा। उसकी आँखों में आँसू बन छल छल छलकूँगा।<br>उसके होंठों में विस्मय की ध्वनि तरंग बनूँगा। <br>तुम्हारी लपटों को मैं लगातार प्यार की बारिश बन बुझाऊँगा।<br><br>
पहाड़ को नंगा करते वक्त तुमने सोचा न था <br>
पहाड़-१<br>
पहाड़ को कठोर मत समझो<br>पहाड़ को नोचने पर<br>पहाड़ के अाँसू बह अाते हैं<br>सड़कें करवट बदल<br>चलते-चलते रुक जाती हैं<br><br>
पहाड़ को<br>दूर से देखते हो तो<br>पहाड़ ऊँचा दिखता है<br><br>
करीब आओ<br>पहाड़ तुम्हें ऊपर खींचेगा<br>पहाड़ के ज़ख्मी सीने में<br>रिसते धब्बे देख<br>चीखो मत<br><br>
पहाड़ को नंगा करते वक्त<br>तुमने सोचा न था<br>पहाड़ के जिस्म में भी<br>छिपे रहस्य हैं।<br><br>
पहाड़-२<br>
इसलिए अब<br>अकेली चट्टान को<br>पहाड़ मत समझो<br><br>
पहाड़ तो पूरी भीड़ है<br>उसकी धड़कनें<br>अलग-अलग गति से<br>बढ़ती-घटती रहती हैं<br><br>
अकेले पहाड़ का जमाना<br>बीत गया<br>अब हर ओर<br>पहाड़ ही पहाड़ हैं।<br><br>
पहाड़-३
पहाड़ों पर रहने वाले लोग<br>पहाड़ों को पसंद नहीं करते<br>पहाड़ों के साथ<br>हँस लेते हैं<br>रो लेते हैं<br>सोचते हैं<br>पहाड़ों पर आधी ज़िंदगी गुज़र गई<br>बाकी भी गुज़र जाएगी।<br><br>
(मूल रचना: १९८८; एक झील थी बर्फ की - आधार प्रकाशन, १९९०)