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कलगी बाजरे की / अज्ञेय

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|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=हरी घास पर क्षण भर / अज्ञेय
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<Poem>
हरी बिछली घास।<br />दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।<br /><br /> अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका<br />अब नहीं कहता,<br />या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,<br />टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो <br /> नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है<br />या कि मेरा प्यार मैला है।<br /><br /> बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।<br />देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।<br /><br /> कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।<br />मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :<br />तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादु जादू के-<br />निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-<br />अगर मैं यह कहूं-<br /><br /> बिछली घास हो तुम<br /> लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?<br /><br /> आज हम शहरातियों को<br />पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से <br /> सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-<br />
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,<br />या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी<br />अकेली <br /> बाजरे की।<br /><br /> और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं<br />यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-<br />और मैं एकान्त होता हूं समर्पित<br /><br /> शब्द जादु जादू हैं-<br />मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?<br /poem>
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