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पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!
कुछ तो टूटे
मिलना हो तो कुछ तो टूटे
कुछ टूटे तो मिलना हो
कहने का था, कहा नहीं
चुप ही कहने में क्षम हो
इस उलझन को कैसे समझें
जब समझें तब उलझन हो
बिना दिये जो दिया उसे तुम
बिना छुए बिखरा दो-लो!
'''नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980'''
</poem>
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