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प्रलय की छाया / जयशंकर प्रसाद

69 bytes added, 07:51, 2 सितम्बर 2012
रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें
उसे उकसाने को-हँसाने को।
 
पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से
कस्तरी मृग जैसी।
 
पश्चिम जलधि में,
मेरी लहरीली नीली अलकावली समान
हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में,
पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती।
 
नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला
अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ
आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा
जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती।
 
नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी
चरण अलक्तक की लाली से
जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा
पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को।
 
कितनी मादकता थी?
लेने लगी झपकी मैं
कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में
जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी।
 
"आँखे खुली;
देखा मैने चरणों में लोटती थी
वह एक सन्ध्या था।"
"श्यामा सृष्चि सृष्टि युवती थीतारक-खचिक नीलपच नीलपट परिधान था
अखिल अनन्त में
चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ
मदकल मलय पवन ले ले फूलों से
मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था।
 
चाँदनी के अंचल में।
हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा।
 
सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको
तारिकाएँ झाँकती थी।
मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में
बहाती लावण्य धारा।
 
स्मर शशि किरणें
स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को
स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर।
 
अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में
गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,
तिरते थे
मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में।
 
पीते मकरन्द थे
मेरे इस अधखिले आनन सरोज का
नियति-नटी थी आई सहसा गगन में
तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।"
 
"पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था
आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति
सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा
गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन;
 
उन्नत हुआ था भाल
महिला-महत्त्व का।
सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ
जीवन का अपने भविष्य नये सिर से;
 
उसी दिन
बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता।
 
देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि
व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से
अट्टहास करती सजीव उल्लास से
फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में।
 
वही कमला हूँ मैं!
देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में,
दूर वे चले गये,
और हुई बन्दी मै।
 
वाह री नियति!
उस उज्जवल आकाश में
पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर
व्यंग्य-हास करती थी।
 
एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर
आज भी नचाता वही,
सन्मुख सुलतान के
मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई।
 
उस अभिमान में
मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे -
कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था?
उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का।
 
रूप यह!
देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी
कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ?
 
बन्दिनी मैं बैठी रही
देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी।
यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की
एक छलना-सी, सजने लगी था थी सन्ध्या में।
कृष्णा वह आई फिर रजनी भी।
खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति
अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में ।
जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में!
 
कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का
कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति
कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की!
साहस उमड़ता था वेग पूर्ण -पूर्-ओघ-सा
किन्तु हलकी थी मैं,
तृण बह जाता जैसे
और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी,
अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती।
 
अन्त करने का और वहीं मर जाने का
मेरा उत्साह मन्द हो चला।
कितनी मधुर हैं?
विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही।
 
कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:-
अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी,
भोर में ही माँगता हैं
"जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी।
जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य हैं।है।
रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई
"मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम?
इतनी मैं रिक्त हूँ ?"
क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही।
 
शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की
अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में।
मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने।
जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन
अद्बूत अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से।
मैने कहा:-
दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं
प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ।
 
सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े,
और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में ।
वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम
मरता है मानिक!
 
गूँज उठा कानों में-
"जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।"
 
उठी एक गर्व-सी
किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में
हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं
जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में।
 
प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था?
अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए
यह उपहार हैं, शृंगार हैं।
मेरा रूप माधुरी का।
 
मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से
गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की
व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर।
अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते ।
 
जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे
भवें बल खाती जब;
इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से
बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द।
 
रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से
कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ
विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे;
उसी मानवता के आत्म सम्मान को।"
 
जीवन में आता हैं परखने का
जिसे कोई एक क्षण,
उग्र कोलाहल में,
जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती।
 
सोचा था उस दिन:
जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने,
अन्त किया छल से काफूर ने
अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का।
 
आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी
रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए
मारे गये।
वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी।
 
शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं
और फिर
मानिक ने, खुसरु के नाम से
शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं।
 
उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति
मैं हूँ किस तल पर?
उसे किया मानिक ने।
खुसरु ने!!
 
उद्धत प्रभुत्व का
वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में
कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह!
 
"नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं
जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।
करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में ।
ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में
वेग भरी वासनाषवासना
अन्तक शरभ के
काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से।
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