भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|संग्रह=गीतांजलि / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
}}
<poem>
तुम अब तो मुझे स्वीकारो नाथ, स्वीकार लो।
इस बार नहीं तुम लौटो नाथ-
गुजरे जो दिन बिना तुम्हारे
वे दिन वापस नहीं चाहिए
खाक में मिल जाऍं जाएँ वे
अब तुम्हारी ज्योति से जीवन ज्योतित कर
देखो मैं जागूँ निरंतर।
किस आवेश में, किसकी बात में आकर
भटकता रहा मैं जहॉंजहाँ-तहॉंतहाँ-
पथ-प्रांतर में,
इस बार सीने से मुख मेरा लगा