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|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
कभी तो लौंडा लड़े है कभी लुगाई लड़े
हज़ार ख़र्च कहाँ तक मेरी कमाई लड़े

अजब नशा है मेरे मुल्क़ में लड़ाई का
मिला न कोई तो आपस में भाई भाई लड़े

हरेक हुक्म पे हाज़िर, हरेक डाँट पे चुप
कभी तो मुझसे मेरी काम वाली बाई लड़े

कहाँ-कहाँ से न उधड़ा कसा-कसा कुर्ता
जवानी तुझसे कहाँ तक कोई सिलाई लडे़

फटा चिथा सा वो कंबल तो दे चुका है जवाब
ठिठुरती रात से कब तक मेरी चटाई लड़े

गुनह दिमाग़ में आये मजाल क्या उसकी
लड़ाई ठीक से गर दिल की पारसाई लड़े

जो हमने दोस्ती की है, तो दोस्ती की है
जो हम लड़ाई लड़े हैं, तो बस लड़ाई लड़े
</poem>
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