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|संग्रह=अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
कभी दरीचे कभी छत से मुझको देखती है
वो लड़की पूरी तबीयत से मुझको देखती है

सब उसकी एक नज़र को तरसते रहते हैं
वो देखती है तो हसरत से मुझको देखती है

फ़ज़ा में गूँजने लगते हैं गान मीरा के
वो जब भी दोस्तो शिद्दत से मुझको देखती है

न कोई देख रहा हो ये देख लेती है
वो एहतियातो-हिफ़ाज़त से मुझको देखती है

किसी भी रोज़ जो उसको न मैं दिखाई दूँ
तो अगले रोज़ शिकायत से मुझको देखती है

ज़माने ये तो बता क्यों तुझे अखरता है
अगर वो आँख मुहब्बत से मुझको देखती है

वो महलों वाली ‘अकेला’, मैं झोपड़ी वाला
मैं क्या करूँ कि वो चाहत से मुझको देखती है
</poem>
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