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* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी]]पहिले नावँ दैउ कर लीन्हा । जेइ जिउ दीन्ह, बोल मुख कीन्हा ॥<br>* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी]]दीन्हेसि सिर जो सँवारै पागा । दीन्हेसि कया जो पहिरै बागा ॥<br>* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी]]दीन्हेसि नयन-जोति, उजियारा । दीन्हेसि देखै कहँ संसारा ॥<br>* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 4 / मलिक मोहम्मद जायसी]]दीन्हेसि स्रवन बात जेहि सुनै । दीन्हेसि बुद्धि, ज्ञान बहु गुनै ॥<br>दीन्हेसि नासिक लीजै बासा । दीन्हेसि सुमन सुगंध-बिरासा ॥<br>दीन्हेसि जीभ बैन-रस भाखै । दीन्हेसि भुगुति, साध सब राखै ॥<br>दीन्हेसि दसन सुरंग कपोला । दीन्हेसि अधर जे रचै तँबोला ॥<br> दीन्हेसि बदन सुरूप रँग, दीन्हेसि माथे भाग ।<br>देखि दयाल, `मुहमद' सीस नाइ पद लाग ॥1॥<br><br> दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि भुजादंड, बल बाहाँ ॥<br>दीन्हेसि हिया भोग जेहि जमा । दीन्हेसि पाँच भूत, आतमा ॥<br>दीन्हेसि बदन सीत औ घामू । दीन्हेसि सुक्ख-नींद बिसरामू ॥<br>दीन्हेसि हाथ चाह जस कीजै । दीन्हेसि कर-पल्लव गहि लीजै ॥<br>दीन्हेसि रहस कूद बहुतेरा । दीन्हेसि हरष हिया बहु मेरा ॥<br>दीन्हेसि बैठक आसन मारै । दीन्हेसि बूत जो उठें सँभारै ॥<br>दीन्हेसि सबै सँपूरन काया । दीन्हेसि दोइ चलै कहँ पाया ॥<br> दीन्हेसि नौ नौ फाटका, दीन्हेसि दसवँ दुवार ।<br>सो अस दानि `मुहमद', तिन्ह कै हौं बलिहार ॥2॥<br><br> मरम नैन कर अँधरै बूझा । तेहि बिसरे संसार न सूझा ॥<br>मरम स्रवन कर बहिरै जाना । जो न सुनै, किछु दीजै साना ॥<br>मरम जीभ कर गूँगै पावा । साध मरै, पै निकर न नावाँ ॥<br>मरम बाहँ कै लूलै चीन्हा । जेहि बिधि हाथन्ह पाँगुर कीन्हा ॥<br>मरम कया कै कुस्टी भेंटा । नित चिरकुट जो रहै लपेटा ॥<br>मरम बैठ उठ तेहि पै गुना । जो रे मिरिग कस्तूरी पहाँ ॥?<br>मरम पावँ कै तेहि पै दीठा । होइ अपाय भुइँ चलै बईठा ॥<br> अति सुख दीन्ह बिधातै, औ सब सेवक ताहि ।<br>आपन मरम `मुहमद' अबहूँ समुझ, कि नाहि ॥3॥<br><br> भा औतार मोर नौ सदी । तीस बरीस ऊपर कबि बदी ॥<br>आवत उधत-चार बिधि ठाना । भा भूकंप जगत अकुलाना ॥<br>धरती दीन्ह चक्र-बिधि लाईं । फिरै अकास रहँट कै नाईं ॥<br>गिरि पहार मेदिनि तस हाला । जस चाला चलनी भरि चाला ॥<br>मिरित-लोक ज्यों रचा हिंडोला । सरग पताल पवन-खट डोला ॥<br>गिरि पहार परबत ढहि गए । सात समुद्र कीच मिलि भए ॥<br>धरती फाटि, छात भहरानी । पुनि भइ मया जौ सिष्टि समानी ॥<br> जो अस खंभन्ह पाइ कै, सहस जीभ गहिराइँ ।<br>सो अस कीन्ह `मुहमद', तोहि अस बपुरे काइँ ॥4॥<br><br> सूरुज (अस) सेवक ताकर अहै । आठौ पहर फिरत जो रहै ॥<br>आयसु लिए रात दिन धावै । सरग पताल दुवौ फिरि आवै ॥<br>दगधि आगि महँ होइ अँगारा । तेहि कै आँच धिकै संसारा ॥<br>सो अस बपुरै गहनै लीन्हा । औ धरि बाँधि चँडालै दीन्हा ॥<br>गा अलोप होइ, भा अँधियारा । दीखै दिनहि सरग महँ तारा ॥<br>उवतै झप्पि लीन्ह, घुप चाँपै । लाग सरब जिउ थर थर काँपै ॥<br>जिउ कहँ परे ज्ञान सब झूठै । तब होइ मोख गहन जौ छूटै ॥<br> ताकहँ एता तरासै जो सेवक अस नित ।<br>अबहुँ न डरसि `मुहमद', काह रहसि निहचिंत ॥5॥<br><br> ताकै अस्तुति कीन्हि न जाई । कोने जीभ मैं करौं बढाई ?॥<br>जगत पताल जो सैते कोइ । लेखनी बिरिख, समुद मसि होई॥<br>लागै लिखै सिष्टि मिलि जाई । समुद घटै, पै लिखि न सिराई ॥<br>साँचा सोइ और सब झूठे । ठावँ न कतहुँ ओहि कै रूठे ॥<br>आयसु इबलीस हु जौ टारा । नारद होइ नरक महँ पारा ॥<br>सौ दुइ कटक, कहउ लखि घोरा । फरऊँ रोधि नील महँ बोरा ॥<br>जौ शदाद बैकुंठ सँवारा । पैठत पौरि बीच गहि मारा ॥<br> जो ठाकुर अस दारुन, सेवक तइँ निरदोख ।<br>माया करै `मुहम्मद', तौ पै होइहि मोख ॥6॥<br><br> रतन एक बिधनै अवतारा । नावँ `मुम्मद' जग-उजियारा ॥<br>चारि मीत चहुँदिसि गजमोती । माँझ दिपै मनु मानिक-जोती ॥<br>जेहि हित सिरजा सात समुंदा । सातहु दीप भए एक बुंदा ॥<br>तर पर चौदह भुवन उसारे । बिच बिच खंड-बिखंड सँवारे ॥<br>धरती औ गिरि मेरु पहारा । सरग चाँद सूरज औ तारा ॥<br>सहस अठारह दुनिया सिरैं । आवत जात जातरा करैं ॥<br>जेइ नहिं लीन्ह जनम महँ नाऊँ । तेहहि कहँ कीन्ह नरक महँ ठाऊँ ॥<br> सो अस देऊ न राखा, जेहि कारन सब कीन्ह ।<br>दहुँ तुम काह `मुहम्मद' एहि पृथिवी चित दीन्ह ॥7॥<br><br> बाबर साह छत्रपति राजा । राज-पाट उन कहँ बिधि साजा ॥<br>भुलुक सुलेमाँ कर ओहि दीन्हा । अदल दुनी ऊमर जस कीन्हा ॥<br>अली केर जस कीन्हेसि खाँडा । लीन्हेसि जगत समुद भरि डाँडा ॥<br>बल हजमा कर जैस सँभारा । जो बरियार उठा तेहि मारा ॥<br>पहलवान नाए सब आदी । रहा न कतहुँ बाद करि बादी ॥<br>बड परताप आप तप साधे । धरम के पंथ दई चित बाँधे ॥<br>दरब जोरि सब काहुहि दिए । आपुन बिरह आउ-जस लिए ॥<br> राजा होइ करै, सब छाँडि, जगत महँ राज ।<br>तब अस कहैं `मुहम्मद', वै कीन्हा किछु काज ॥8॥<br><br> मानिक एक पाएउँ उजियारा । सैयद असरफ पीर पियारा ॥<br>जहाँगीर चिस्ती निरमरा । कुल जग महँ दीपक बिधि धरा ॥<br>औ निहंग दरिया-जल माहाँ । बूडत कहँ धरि काढत बाहाँ ॥<br>समुद माहँ जो बाहति फिरई । लेतै नावँ सौहँ होइ तरई ॥<br>तिन्ह घर हौ मुरीद, सो पीरू । सँवरत बिनु गुन लावै तीरू ॥<br>कर गहि धरम-पंथ देखरावा । गा भुलाइ तेहि मारग लावा ॥<br>जो अस पुरुषहि मन चित लावै । इच्छा पूजै, आस तुलावै ॥<br> जौ चालिस दिन सेवै, बार बुहारै कोइ ।<br>दरसन होइ `मुहम्मद', पाप जाइ सब धोइ ॥9॥ <br><br> जायस नगर मोर अस्थानू । नगर क नावँ आदि उदयानू ॥<br>तहाँ दिवस दस पहुने आएउँ । भा बैराग बहुत सुख पाएउँ ॥<br>सुख भा, सोचि एक दिन मानौं । ओहि बिनु जिवन मरन कै जानौं ॥<br>नैन रूप सो गएउ समाई । रहा पूरि भर हिरदय कोई ॥<br>जहवैं देखौं तहँवै सोई । और न आव दिस्टि तर कोई ॥<br>आपुन देखि देखि मन राखौं । दूसर नाहिं, सो कासौं भाखौं ॥<br>सबै जगत दरपन कै बेखा । आपन दरसन आपुहि देखा ॥<br> अपने कौकुत कारन मीर पसारिन हाट । <br>* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी]]* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 6 / मलिक मुहम्मद बिहनै होइ निकसिन तेहि बाट ॥10॥<br><br> धूत एक मारत गनि गुना । कपट-रूप नारद करि चुना ॥<br>`नावँ न साधु', साधि कहवावै तेहि लगि चलै जौ गारी पावै ॥<br>भाव गाँठि अस मुख, कर भाँजा । कारिख तेल घालि मुख माँजा ॥<br>परतहि दीठि छरत मोहिं लेखे । दिनहिं माँझ अँधियर मुख देखे ॥<br>लीन्हे चंग राति दिन रहई । परपँच कीन्ह लोगन महँ चहई ॥<br>भाइ बंधु महँ लाई लावै । बाप पूत महँ कहै कहावै ॥<br>मेहरी भेस रैनि के आवै । तरपड कै पूरुख ओनवावै ॥<br> मन-मैली कै ठगि ठगै, ठगै न पायौ काहु ।<br>वरजेउ सबहिं `मुहम्मद', असि जिन तुम पतियाहु ॥11॥<br><br> अंग चढावहु सूरी भारा । जाइ गहौ तब चंग अधारा ॥<br>जौ काहू सौं आनि चिहूँटै । सुनहु मोर बिधि कैसे छूटै ॥<br>उहै नावँ करता कर लेऊ । पढौ पलीता धूआँ देऊ ॥<br>जौ यह धुवाँ नासिकहि लागै । मिनती करै औ उठि उठि भागै ॥<br>धरि बाईं लट सीस झकोरै । करि पाँ तर, गहि हाथ मरोरै ॥<br>तबहि सँकोच अधिक ओहि हौवै । `छाँडहु, छाँडहु!' कहि कै रोवैं ॥<br>धरि बाहीं लै थुवा उडावै । तासौं डरै जो ऐस छोडावै ॥<br> है नरकी औ पापी, टेढ बदन औ आँखि ॥<br>चीन्हत उहै `मुहम्मद', झूठ-भरी सब साखि ॥12॥<br><br> नौ सै बरस छतीस जो भए । तब एहि कथा क आखर कहे ॥<br>देखौं जगत धुध कलि माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥<br>यह संसार सपन कर लेखा । माँगत बदन नैन भरि देखा ॥<br>लाभ, दिउ बिनु भोग, न पाउब । परिहि डाड जहँ मूर गँवाउब ॥<br>राति क सपन जागि पछिताना । ना जानौ कब होइ बिहाना ॥<br>अस मन जानि बेसाहहु सोई । मूर न घटै, लाभ जेहि होई ॥<br>ना जानेहु बाढत दिन जाई । तिल तिल घहै आउ नियराई ॥ <br> अस जिन जानेहु बढत है, दिन आवत नियरात ।<br>कहै सो बूझि `मुहम्मद' फिर न कहौं असि बात ॥13॥<br><br> जबहिं अंत कर परलै आई । धरमी लोग रहै ना पाई ॥<br>जबहीं सिद्ध साधु गए पारा । तबहीं चलै चोर बटपारा ॥<br>जाइहि मया-मोह सब केरा । मच्छ-रूप कै आइहि बेरा ॥<br>उठिहैं पंडित बेद-पुराना । दत्त सत्त दोउ करिहिं पयाना ॥<br>धूम-बरन सूरुज होइ जाई । कृस्न बरन सब सिष्टि दिखाई <br>दधा पुरुब दिसि उइहै जहाँ । पुनि फिरि आइ अथइहै तहाँ ॥<br>चढि गदहा निकसै धरि जालू । हाथ खंड होइ, आवै कालू ॥<br> जो रे मिलै तेहि मारै, फिरि फिरि आइ कै गाज ।<br>सबही मारि `मुहम्मद', भूज अरहिता राज ॥14॥<br><br> पुनि धरती कहँ आयसु होई । उगिलै दरब, लेइ सब कोई ॥ <br>`मोर मोर', करि उठिहैं झारी । आपु आपु महँ करिहैं मारी ॥<br>अस न कोई जानै मन माहाँ । जो यह सँचा अहै सो कहाँ ॥<br>सैंति सैंति लेइ लेइ घर भरहीं । रहस-कूद अपने जिउ करहीं ॥<br>खनहिं उतंग, खनहि फिर साँती । नितहि हुलंब उठै बहु बाँती ॥<br>पुनि एक अचरज सँचरै आई । नावँ `मजारी' भँवै बिलाई ॥<br>ओहि के सूँघे जियै न कोई । जो न मरै तेहि भक्खै सोई ॥<br> सब संसार फिराइँ औ लावै गहिरी घात ।<br>उनहूँ कहै `मुहम्मद' बार न लागिहि जात ॥15॥<br><br> पुनि मैकाइल आयसु पाए । उन बहु भाँति मेघ बरसाए ॥<br>पहिले लागै परै अँगारा । धरती सरग होइ उजियारा ॥<br>लागी सबै पिरथिवीं जरै । पाछे लागे पाथर परै ॥<br>सौ सौ मन कै एक एक सिला । चलै पिंड घुटि आवैं मिला ॥<br>बजर-गोट तस छूटैं भारी । टूटैं रूख बिरुख-सब झारी ॥<br>परत धमाकि धरति सब हालै । उधिरत उठै सरग लौं सालै ॥<br>अधाधार बरसै बहु भाँती । लागि रहै चालिस दिन-राती ॥<br> जिया-जंतु सब मरि घटे जित सिरजा संसार ।<br>कोइ न है `मुहम्मद', होइ बीता संघार ॥16॥<br><br> जिबरईल पाउब फरमानू । आइ सिस्टि देखब मैदानू ॥<br>जियत न रहा जगत केउ ठाढा । मारा झोरि कचरि सब गाढा ॥<br>मरि गंधाहिं, साँस नहिं आवै । उठै बिगंध, सडाइँध आवैं ॥<br>जाइ देऊ से करहु बिनाती । कहब जाइ जस देखब भाँती ॥<br>देखहु जाइ सिस्टि बेवहारू । जगत उजाड सून संसारू ॥<br>अस्ट दिसा उजारि सब मारा । कोइ न रहा नावँ-लेनिहारा ॥<br>मारि माछ जस पिरथिवीं पाटी । परै पिछानि न, दीखे माटी ॥<br> सून पिरथिवीं होइगई, दहुँ धरती सब लीप ।<br>जेतनी सिस्टि `मुहम्मद' सबै भाइ जल-दीपि ॥17॥<br><br> मकाईल पुनि कहब बुलाई । बरसहु मेघ पिरथिवीं जाई ॥<br>उनै मेघ भरि उठिहैं पानी । गरजि गरजि बरसहिं अतवानी ॥<br>झरी लागि चालिस दिन राती । घरी न निबुसै एकहु भाँती ॥<br>छूटि पानि परलय की नाईं । चढा छापि सगरिउँ दुनियाईं ॥<br>बूडहिं परबत मेरु पहारा । जल हुलि उमडि चलै असरारा ॥<br>जहँ लगि मगर माछ जित होई । लेइ बहाइ जाइहि भुइँ धोई ॥<br> सून पिरथिवीं होइहि, बूझे हँसै ठठाइ ।<br>एतनि जो सिस्टि `मुहम्मद', सो कहँ गई हेराइ ॥18॥<br><br> पुनि इसराफीलहि फरमाए । फूँके, सब संसार उडाए ॥<br>दै मुख सूर भरै जो साँसा । डोलै धरती, लपत अकासा ॥<br>भुवन चौदहो गिरि मनु डोला । जानौ घालि झुलाव हिंडोला ॥<br>पहिले एक फूँक जो आई । ऊँच-नीच एक -सम होइ जाई ॥<br>नदी नार सब जैहै पाटी । अस होइ मिले ज्यों ठाढी माटी ॥<br>दूसरि फूँक जो मेरू उडहै । परबत समुद्र एक होइ जैहैं ॥<br>चाँद सुरुज तारा घट टूटै । परतहि खंभ सेस घट फूटै ॥<br> तिसरे बजर महाउब, अस धुइँ लेब महाइ ।<br>पूरब पछिउँ `मुहम्मद'एक रूप होइ जाइ ॥19॥<br><br> अजराइल कहँ बेगि बोलावै । जीउ जहाँ लगि सबै लियावै ॥<br>पहिले जिउ जिबरैल क लेई । लोटि जीउ मैकाइल देई ॥<br>पुनि जिउ देइहि इसराफीलू । तीनिहु कहँ मारै अजराईलू ॥<br>काल फिरिस्तिन केर जौ होई । कोइ न जागौ, निसि असि होई ॥<br>पुनि पूछब "जम! सब जिउ लीन्हा ?। एकौ रहा बाँचि जो दीन्हा ?॥" <br>सुनि अजराइल आगे होइ आउब । उत्तर देब, सीस भुइँ नाउब ॥<br>आयसु होइ करौं अब सोई । की हम, की तुम , और न कोई ॥<br> जो जम आन जिउ लेत हैं, संकर तिनहू कर जिउ लेब ।<br>सो अवतरें मुहम्मद' देखु तहुँ जिउ देब ॥20॥<br><br> पुनि फरमाए आपु गोसाईं । तुमहि दैउ जिवाइहि नाहीं ॥<br>सुनि आयसु पाछे कहँ ढाए । तिसरी पौरि नाँघि नहिं पाए ॥<br>परत जीउ जब निसरन लागै । होइ बड कष्ट, घरी एक जागै ॥<br>प्रान देत सँवरै मन माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥<br>जस जिउ देत मोहिं दुख होई । ऐसै दुखै अहा सब कोई ॥<br>जौ जनत्यों अस दुख जिउ देता । तौ जिउ काहू केर न लेता ॥<br>लौटि काल तिनहूँ कर होवै । आइ नींद, निधरक होइ सोवै ॥<br> भंजन, गढन सँवारन जिन खेला सब खेल ।<br>सब कहँ टारि `मुहम्मद',अब होइ रहा अकेल ॥21॥<br><br> चालिस बरस जबहिं होइ जैहै । उठिहि मया, पछिले सब ऐहैं ॥<br>मया-मोह कै किरपा आए । आपहि काहिं आप फरमाए ॥<br>मैं संसार जो सिरजा एता । मोर नावँ कोई नहिं लेता ॥<br>जेतने परे सब सबहि उठावौं । पुलसरात कर पंथ रेंगावौं ॥<br>पाछे जिए पूछौं अब लेखा । नैन माँह जेता हौं देखा ॥<br>जस जाकर सरवन मैं सुना । धरम पाप, गुन औगुन गुना ॥<br>कै निरमल कौसर अन्हवावौं । पुनि जीउन्ह बैकुंठ पठावौं ॥<br> मरन गँजन घन होइ जस, जस दुख देखत लोग ।<br>तस सुख होइ `मुहम्मद', दिन दिन मानैं भोग ॥22॥<br><br> पहिले सेवक चारि जियाउब । तिन्ह सब काजै-काज पठाउब ॥<br>जिबराइल औ मैकाईल । असराफील औ अजराईलू ॥<br>जिबरईल पिरथिवीं महँ आए । आइ मुहम्मद कहँ गोहराए ॥<br>जिबरईल जग आइ पुकारब । नावँ मुहम्मद लेत हँकारब ॥<br>होइहैं जहाँ मुहम्मद नाऊँ । कहउ लाख बोलिहैं एक ठाऊँ ॥<br>ढूढत रहै, कहहुँ नहिं पावै । फिरि कै जाइ मारि गोहरावै ॥<br>कहै "गोसाइँ ! कहाँ वै पावौं । लखन बोलै जौ रे बोलावौं ॥<br> सब धरती फिरि आएउँ, जहाँ नावँ सो लेउँ ।<br>लाखन उठैं मुहम्मद, केहि कहँ उत्तर देउँ ॥23॥<br><br> जिबराइल पुनि आयसु पावै । "सूँघे जगत ठाँव सो पावै ॥<br>बास सुबास लेउ हैं जहाँ । नाव रसूल पुकारसि तहाँ ॥"<br>जिबराइल फिरि पिरथिवीं आए । सूँघत जगत ठाँव सो पाए ॥<br>उठहु मुहम्मद, होहु बड नेगी । देन जोहार बोलावहिं बेगी ॥<br>बेगि हँकारेउ उमत समेता । आवहु तुरत साथ सब लेता ॥<br>एतने बचन ज्योंहि मुख काढे । सुनत रसूल भए उठि ठाढे ॥<br>जहँ लगि जीउ मुकहि सब पाए । अपने अपने पिंजरे आए ॥<br> कइउ जुगन के सोवत उठे लोग मनो जागि ।<br>अस सब कहैं `मुहम्मद' नैन पलक ना लागि ॥24॥<br><br> उठत उमत कहँ आलस लागै । नींद-भरी सोवत नहिं जागै ॥<br>पौढत बार न हम कहँ भएऊ । अबहिंन अवधि आइ कब गएऊ ॥<br>जिबराइल तब कहब पुकारी । अबहूँ नींद न गई तुम्हारी ॥<br>सोवत तुमहिं कइउ जुग बीते । ऐसे तौ तुम मोहे, न चीते ॥<br>कइउ करोरि बरस भुइँ परे । उठहु न बेगि मुहम्मद खरे ॥<br>सुनि कै जगत उठिहि सब झारी । जेतना सिरजा पुरुष औ नारी ॥<br>नँगा-नाँग उठिहै संसारू । नैना होइहैं सब के तारू ॥<br> कोइ न केहु तन हेरै, दिस्टि सरग सब केरि ।<br>ऐसे जतन `मुहम्मद', सिस्टि चलै सब घेरि ॥25॥<br><br> पुनि रसूल जैहैं होइ आगे । उम्मत चलि सब पाछे लागै ॥<br>अंध गियान होइ सब केरा । ऊँच नीच जहँ होइ अभेरा ॥<br>सबही जियत चहैं संसारा । नैनन नीर चलै असरारा ॥<br>सो दिन सँवरि उमत सब रोवै । ना जानौं आगे कस होवै ॥<br>जो न रहै, तेहि का यह संगा ? मुख सूखै तेहि पर यह दंगा ॥<br>जेहि दिन कहँ नित करत डरावा । सोइ दिवस अब आगे आवा ॥<br>जौ पै हमसे लेखा लेबा । का हम कहब, उतर का देबा ॥<br> एत सब सँवरि कै मन महँ चहैं जाइ सो भूलि ।<br>पैगहि पैग 'मुहम्मद' चित्त रहै सब झुलि ॥26॥<br><br> पुल सरात पुनि होइ अभेरा । लेखा लेब उमत सब केरा ॥<br>एक दिसि बैठि मुहम्मद रोइहैं । जिबरईल दूसर दिसि होइहैं ॥<br>वार पार किछु सूझत नाहीं । दूसर नाहिं, को टैकै बाहीं ?॥<br>तीस सहस्त्र कोस कै बाटा । अस साँकर जेहि चलै न चाँटा ॥<br>बारहु तें पतरा अस झीना । खडग-धार से अधिकौ पैना ॥<br>दोउ दिसि नरक-कुंड हैं भरे । खोज न पाउब तिन्ह महँ परे ॥<br>देखत काँपै लागै जाँघा । सो पथ कैसे जैहै नाँघा ॥<br> तहाँ चलत सब परखब, को रे पूर, को ऊन ।<br>अबहिं को जान `मुहम्मद', भरे पाप औ पून ॥27॥<br><br> जो धरमी होइहि संसारा । चमकि बीजु अस जाइहि पारा ॥<br>बहुतक जनौं तुरँग भल धइहैं । बहुतक जानु पखेरु उडइहैं ॥<br>बहुतक चाल चलै महँ जइहैं । बहुतक मरि मरि पावँ उठइहैं ॥<br>बहुतक जानु पखेरु उडइहैं । पवन कै नाईं तेहि महँ जइहैं ॥<br>बहुतक जानौं रेंगहिं चाँटी । बहुतक बहैं दाँत धरि माटी ॥<br>बहुतक नरक-कुंड महँ गिरहीं । बहुतक रकत पीब महँ परहीं ॥<br>जेहि के जाँघ भरोस न होई । सो पंथी निभरोसी रोई ॥<br> परै तरास सो नाँघत, कोइ रे वार, कोइ पार ।<br>कोइ तिर रहा`मुहम्मद', कोइ बूडा मझ-धार ॥28॥ <br><br> लौटि हँकारब वह तब भानू । तपै कहैं होइहि फरमानू ॥<br>पूछब कटक जेता है आवा । को सेवक, को बैठे खावा ?॥<br>जेहि जस आउ जियन मैं दीन्हा । तेहि तस चाहौं लीन्हा ॥<br>अब लगि राज देस कर भूजा । अब दिन आइ लेखा कर पूजा ॥<br>छः मास कर दिन करौं आजू । आउ क लेउँ औ देखौं साजू ॥<br>से चौराहै बैठे आव । एक एक जन कँ पूछि पकरावै ॥<br>नीर खीर हुँत काढब छानी । करब निनार दूध और पानी ॥<br> धरम पाप फरियाउब, गुन औगुन सब दोख ।<br>दुखी न होहु `मुहम्मद', जोखि लेब धरि जोख ॥29॥<br><br> पुनि कस होइहि दिवस छ मासू । सूरुज आइ तपहिं होइ पासू ॥<br>कै सउँहैं नियरे रथ हाँकै । तेहिकै आँच गूद सिर पाकै ॥<br>बजरागिनि अस लागै तैसे । बिलखैं लोग पियासन बैसे ॥<br>उनै अगिन अस बरसै घामू । भूँज देह, जरि जावै चामू ॥<br>जेइ किछु धरम कीन्ह जग माँहा । तेहि सिर पर किछु आवै छाहाँ ॥<br>धरिमिहि आनि पियाउब पानी । पापी बपुरहि छाहँ न पानी ॥<br>जो राजता सो काज न आवै । इहाँ क दीन्ह उहाँ सो पावै ॥<br> जो लखपती कहावै, लहैन कोडी आधि ।<br>चौदह धजा `मुहम्मद', ठाढ करहिं सब बाँधि ॥30॥<br><br> सवा लाख पैगंबर जेते । अपने अपने पाएँ तेते ॥<br>एक रसूल न बैठहिं छाहाँ । सबही धूप लेहिं सिर माहाँ ॥<br>घामै दुखी उमत जेहि केरी । सो का मानै सुख अवसेरी ?॥<br>दुखी उमत तौ पुनि मैं दुखी । तेहि सुख होइतौ पुनि मैं सुखी ॥<br>पुनि करता कै आयसु होई । उमत हँकारु लेखा मोहिं देई ॥<br>कहब रसूल कि आयसु पावौं । पहिले सब धरमी लै आवौं ॥<br>होइ उतर `तिन्ह हौं ना चाहौं । पापी घालि नरक महँ बाहौं ॥<br> पाप पुन्नि कै तखरी होइ चाहत है पोच ।<br>अस मन जानि मुहम्मद हिरदै मानेउ सोच ॥31॥<br><br> पुनि जैहैं आदम के पासा । `पिता! तुम्हारि बहुत मोहिं आसा ॥<br>`उमत मोरि गाढे है परी । भा न दान, लेखा का धरी ? ॥<br>`दुखिया पूत होत जो अहै । सब दुख पै बापै सौं कहै ॥<br>बाप बाप कै जो कछु खाँगै । तुमहिं छाँडि कासौं पुनि माँगै ?॥<br>`तुम जठेर पुनि सबहिन्ह केरा । अहै सतति ,मुख तुम्हरै हेरा ॥<br>`जेठ जठेर जो करिहैं मिनती । ठाकुर तबहीं सुनिहैं मिनती ॥<br>`जाइ देउ सों बिनवौ रोई । मुख दयाल दाहिन तोहि होई ॥<br> `कहहु जाइ जस देखेउ, जेहि होवै उदघाट ।<br>`बहु दुख दुखी मुहम्मद, बिधि ! संकट तेहि काट' ॥32॥<br><br> `सुनहु पूत! आपन दुख कहऊँ । हौं अपने दुख बाउर रहऊँ ॥<br>`होइ बैकुंठ जो आयसु ठेलेउँ । दूत के कहे मुख गोहूँ मेलेउ ॥<br>`दुखिया पेट लागि सँग धावा । काढि बिहिस्त से मैल ओढावा ॥<br>`परल जाइ मंडल संसारा । नैन न सूझे, निसि -अधियारा ॥<br>`सकल जगत मैं फिरि फिरि रोवा । जीउ अजान बाँधि कै खोवा ॥<br>`भएँ उजियार पिरथिवीं जइहौं । औ गोसाइँ कै अस्तुति कहिहौं ॥<br>`लौटि मिलै जौ हौवा आई । तौ जिउ कहँ धीरझ होइ जाई ॥<br> `तेहि हुँत लाजि उठै जिउ, मुहँ न सकौं दरसाइ ।<br>`सो मुह लेइ, मुहम्मद ! बात कहौं का जाइ ?॥33॥<br><br> पुनि जैहैं मूसा क दोहाई । ऐ बंधू ! मोहिं उपकरू आई ॥<br>`तुम कहँ बिधिना आयसु दीन्हा । तुम नेरे होइ बातैं कीन्हा ॥<br>`उम्मत मोरि बहुत दुख देखा । भा न दान, माँगत है लेखा ॥<br>`अब जौ भाइ मोर तुम अहौ । एक बात मोहिं कारन कहौ ॥<br>`तुम अस ठटै बात का कोई । सोई कहौं बात जेहि होई ॥<br>`गाढे मीत ! कहौं का काहू ? । कहहु जाइ जेहि होइ निबाहू ॥<br>`तुम सँवारि कै जानहु बाता । मकु सुनि माया करै बिधाता ॥<br> मिनती करहु मोर हुँत सीस नाइ, कर जोरि,।<br>हा हा करै मुहम्मद `उमत दुखी है मोरि ॥34॥<br><br> सुनहु रसूल बात का कहौं । हौं अपने दुख बाउर रहौं ॥<br>कै कै देखेउँ बहुत ढिठाई । मुँह गरुवाना खात मिठाई ॥<br>पहिले मो कहँ आयसु दीन्हा । फरऊँ से मैं झगरा कीन्हा ॥<br>`रोधि नील क डारेसि झुरा । फुर भा झूठ, झूठ भा फुरा ॥<br>`पुनि देखै बैकुंठ पठाएउ । एकौ दिसि कर पंथ न पाएउँ ॥<br>पुनि जो मो कहँ दरसन भएऊ । कोह तूर रावट होइ गएऊ ॥<br>`भाँति अनेक मैं फिर फिर जापा । हर दावँन कै लीन्हेसि झाँपा ॥<br> निरखि नैन मैं देखौं, कतहुँ परै नहिं सूझि ।<br>`रहौ लजाइ, मुहम्मद! बात कहौं का बूझि'? ॥35॥<br><br> दौरि दौरि सबही पहँ जैहैं । उतर देइ सब फिरि बहरैहैं ॥<br>ईसा कहिन कि कस ना कहत्यों । जौ किछु कहे क उत्तर पवत्यों ॥<br>मैं मुए मानुस बहुत जियावा । औ बहुतै जिउ-दान दियावा ॥<br>इब्राहिम कह, कस ना कहत्यों । बात कहे बिन मैं ना रहत्यों ॥<br>मोसौं खेलु बंधु जो खेला । सर रचि बाँधि अगिन महँ मेला ॥<br>तहाँ अगिन हुँत भइ फुलवारी । अपडर डरौं, न परहिं सँभारी ॥<br>नूह कहिन, जप परलै आवा । सब जग बूड, रहेउँ चढि नावा ॥<br> काह कहै काहू से, सबै ओढाउब भार ॥<br>जस कै बैन मुहम्मद, करू आपन निस्तार ॥36॥<br><br> सबै भार अस ठेलि ओढाउब । फिर फिर कहब, उतर ना पाउब ॥<br>पुनि रसूल जैहै दरबारा । पैग मारि भुइँ करब पुकारा ॥<br>तै सब जानसि एक गोसाईं । कोइ न आव उमत के ताई ॥<br>जेहि सौ कहौं सो चुप होइ रहै । उमत लाइ केहु बात न कहै ॥<br>मोहिं अस तहीं लाग करतारा । तोहिं होइ भल सोइ निस्तारा ॥<br>जो दुख चहसि उमत कहँ दीन्हा । सो सब मैं अपने सिर लीन्हा ॥<br> लेखि जोखि जो आवै मरन गँजन दुख दाहु ।<br>सो सब सहै मुहम्मद, दुखी कर जनि काहु ॥37॥<br><br> पुन रिसाइ कै कहै गोसाईं । फातिम कहँ ढूँढहु दुनियाईं ॥<br>का मोसौं उन झगर पसारा । हसन हुसैन कहौ को मारा ॥<br>ढूँढे जगत कतहुँ ना पैहैं । फिरि कै जाइ मारि गोहरैहैं ॥<br>ढूँढि जगत दिनिया सब आएउँ । फातिम-खोज कतहुँ ना पाएउँ ॥<br>`आयसु होइ, अहैं पुनि कहाँ' । उठा नाद हैं धरती महाँ ॥<br>`मूँदै नैन सकल संसारा । बीबी उठैं, करै निस्तारा ॥<br>जो कोई देखै नैन उघारी । तेहि कहँ छार करौं धरि जारी' ॥<br> आयसु होइहि देउ कर , नैन रहै सब झाँपि ॥<br>एक ओर डरैं मुहम्मद, उमत मरै डरि काँपि ॥38 ॥<br><br> उट्ठिन वीवी तब रिस किहें । हसन-हुसेन दुवौ सँग लीहें ॥<br>`तैं करता हरता सब जानसि । झूँठै फुरै नीक पहिचानसि ॥<br>`हसन हुसेन दुवौ मोर वारे । दुनहु यजीद कौन गुन मारे ? ॥<br>`पहिले मोर नियाव निबारू । तेहि पाछे जेतना संसारू ॥<br>`समुझें जीउ आगि महँ दहऊँ । देहु दादि तौ चुप कै रहऊँ ॥<br>`नाहि त देउँ सराप रिसाई । मारौं आहि अर्श जरि जाई ॥<br> `बहु संताप उठै निज, कैसहु समुझि न जाइ ।<br>`बरजहु मोह मुहम्मद, अधिक उठै दुख-दाइ' ॥39॥<br><br> पुनि रसूल कहँ आयसु होई । फातिम कहँ समुझावहु सोई ॥<br>`मारै आहि अर्श जरि जाई । तेहि पाछे आपुहि पछिताई ॥<br>` जो नहिं बात क करै बिषादू । जानौ मोहिं दीन्ह परसादू ॥<br>`जो बीबी छाँडहिं यह दोखू । तौ मैं करौं उमत कै मोखू ॥<br>नाहिं न घालि नरक महँ जारौं । लौटि जियाइ मुए पर मारौं ॥<br>`अग्नि-खंभ देखहु जस आगे । हिरकत छार होइ तेहि लागे ॥<br>`चहुँ दिसि फेरि सरग लै लावौं । मँगरन्ह मारौं, लोह चटावौं ॥<br> तेहि पाछे धरि मारौं घालि नरक के काँठ ।<br>बीबी कहँ समुझावहु, जौ रे उमत कै चाँट ॥40॥<br><br> पुनि रसूल तलफत तहँ जैहैं । बीबिहि बार बार समुझैहैं ॥<br>बीबी कहब, `घाम कत सहहू ? कस ना बैठि छाहँ महँ रहहू ? ॥<br>`सब पैगंबर बैठे छाहाँ । तुम कस तपौ बजर अस माहाँ ? ॥<br>कहब रसूल छाँह का बैठौं ? उमत लागि धूपहु नहिं बैठौं ॥<br>`तिन्ह सब बाँधि घाम महँ मेले । का भा मोरे छाहँ अकेले ॥<br>`तुम्हरे कोह सबहि जो मरै । समुझहु जीउ, तबहि निस्तरै ॥<br>जो मोहिं चहौ निवारहु कोहू । तब बिधि करै उमत पर छोहू'॥<br> बहु दुख देखि पिता कर, बीबी समुझा जीउ ।<br>जाइ मुहम्मद बिनवा , ठाढ पाग कै गीउ ॥41॥<br><br> तब रसूल के कहें भइ माया । जिन चिंता मानहु, भइ दाया ॥<br>जौ बीबी अबहूँ रिसियाई । सबहि उमत-सिर आइ बिसाई ॥<br>अब फातिम कहँ बेगि बोलावहु । देइ दाद तौ उमत छोडावहु ॥ <br>फातिम आइ कै पार लगावा । धरि यजीद दोजख महँ गवा ॥<br>अंत कहा, धरि जान से मारै । जिउ देइ देइ पुनि लौटि पछारै ॥<br>तस मारब जेहि भुइँ गडि जाई । खन खन मारै लौटि जियाई ॥<br>बजर-अगिनि जारब कै छारा । लौटि दहै जस दहै लोहारा ॥<br> मारि मारि घिसियावैं, धरि दोजख महँ देब ।<br>जेतनी सिस्टि मुहम्मद सबहि पुकारै लेब ॥42॥<br><br> पुनि सब उम्मत लेब बुलाई । हरू गरू लागब बहिराई ॥<br>निरखि रहौती काढब छानी । करब निनार दूध औ पानी ॥<br>बाप क पूत, न पूत क बापू । पाइहि तहाँ न पुन्नि न पापू ॥<br>आपहि आप आइकै परी । कोउ न कोउ क धरहरि करी ॥<br>कागज काढि लेब सब लखा । दुख सुख जो पिरथिवी महँ देखा ॥<br>पुन्नि पियाला लेखा माँगब । उतर देत उन पानी खाँगब ॥<br>नैन क देखा स्रवन क सुना । कहब, करब, औगुन औ गुना ॥<br> हाथ, पाँव, मुख, काया, स्रवन, सीस औ आँखि ।<br>पाप न चपै `मुहम्मद' आइ भरैं सब साखि ॥43॥<br><br> देह क रोवाँ बैरी होइहैं । बजर-बिया एहि जीउ के बोइहैं ॥<br>पाप पुन्नि निरमल कै धोउब । राखब पुन्नि, पाप सब खोउब ॥<br>पुनि कौसर पठउब अन्हवावै । जहाँ कया निरमल सब पावै ॥<br>बुडकी देब देह-सुख लागी । पलुहब उठि, सोवत अस जागी ॥<br>खोरि नहाइ धोइ सब दुंदू । होइ निकरहिं पूनिउ कै चंदू ॥<br>सब क सरीर सुबास बसाई । चंदन कै अस घानी आई ॥<br>झूठे सबहि, आप पुनि साँचे । सबहि नबी के पाछे बाँचे ॥<br> नबिहि छाडि होइहि सबहि बारह बरस क राह । <br>सब अस जान `मुहम्मद' होइ बरस कै राह ॥44॥<br><br> पुनि रसूल नेवतब जेवनारा । बहुत भाँति होइहि परकारा ॥ <br>ना अस देखा, ना अस सुना । जौ सरहौं तौ है दस गुना ॥<br>पुनि अनेक बिस्तर तहँ डासब । बास सुबास कपूर से बासब ॥<br>होइ आयसु जौ बेगि बोलाउब । औ सब उमत साथ लेइ आउब ॥<br>जिबरईल आगे होइ जइहैं । पग डारै कहँ आयसु देइहैं ॥<br>चलब रसूल उमत लेइ साथा । परग परग पर नावत माथा ॥<br>`आवहु भीतर' बेगि बोलाउब । बिस्तर जहाँ तहाँ बैठाउब ॥<br> झारि उमत सब बैठी जोरि कै एकै पाँति ।<br>सब के माँझ मुहम्मद, जानौ दुलह बराति ॥45 ॥<br><br> पुनि जेंवन कहँ आवै लागैं । सब के आगे धरत न खाँगै ॥<br>भाँति भाँति कर देखब थारा । जानब ना दहुँ कौन प्रकारा ॥<br>पुनि फरमाउब आप गोसाईं । बहुतै दुख देखेउ दुनियाईं ॥<br>हाथन्ह से जेंवन मुख डारत । जीभ पसारत दाँत उघारत ॥<br>कूँचत खात बहुत दुख पाएउ । तहँ ऐसै जेवनार जेवाँएउँ ॥<br>अब जिन लौटि कस्ट जिउ करहू । सुख सवाद औ इंद्री भरहू ॥<br>पाँच भूत आतमा सेराई । बैठि अघाउ, उदर ना भाई ॥<br> ऐस करब पहुनाई, तब होइहि संतोख ।<br>दुखी न होहु मुहम्मद, पोखि लेहु फुर पोख ॥46॥<br><br> हाथन्ह से केहु कौर न लेई । जोइ चाह मुख पैठे सोई ॥<br>दाँत,जीभ,मुख किछु न डोलाउब । जस जस रुचिहै तस तस खाउब ॥<br>जैस अन्न बिनु कूँचै रूचै । तैस सिठाइ जौ कोऊ कूँचै ॥<br>एक एक परकार जो आए । सत्तर सत्तर स्वाद सो पाए ॥<br>जहँ जहँ जाइ के परै जुडाई । इच्छा पूजै, खाइ अघाई ॥<br>अनचखे रअते फर चाखा । सब अस लेइ अपरस रस चाखा ॥<br>जलम जलम कै भूख बुझाई । भोजन केरे साथै जाई ॥<br> जेंवन अँचवन होइ पुनि, पुनि होइहि खिलवान ।<br>अमृत-भरा कटोरा पियहु मुहम्मद पान ॥47॥<br><br> एक तौ अमृत बास कपूरा । तेहि कहँ कहाँ शराब-तहूरा ॥<br>लागब भरि भरि देइ कटोरा । पुरुष ज्ञान अस भरै महोरा ॥<br>ओहि कै मिठाइ माति एक दाऊँ । जलम न मानव होइ अब काहूँ ॥<br>सचु-मतवार रहब होइ सदा । रहसै कूदै सदा सरबदा ॥<br>कबहुँ न खोवै जलम खुमारी । जनौ बिहान उठै भरि बारी ॥<br>ततखन बासि बासि जनु घाला । घरी घरी जस लेब पियाला ॥<br>सबहि क भा मन सो मद पिया । नव औतार भवा औ जिया ॥<br> फिरै तँबोल, मया से कहब `अपुन लेइ खाहु ।<br>भा परसाद, मुहम्मद, उठि बिहिस्त महँ जाहु ' ॥48॥<br><br> कहब रसूल `बिहिस्त न जाऊँ । जौ लगि दरस तुम्हार न पाऊँ ।<br>उघर न नैन तुमहिं बिनु देखे । सबहि अँविरथा मोरे लेखे ॥<br>तौ लै केहु बैकुंठ न जाई । जझौ लै तुम्हरा दरस न पाई ॥<br>करु दीदार, देखौं मै तोहीं । तौ पै जीउ जाइ सुख मोहीं ॥<br>देखें दरस नैन भरि लेऊँ । सीस नाइ पै भुइँ कहँ देऊँ ॥<br>जलम मोर लागा सब थारा । पलुहै जीउ जो गीउ उभारा ॥<br>होइ दयाल करु दिस्टि फिरावा । तोहि छाँडि मोहि और न भावा ॥<br> सीस पायँ भुइँ लावौं, जौ देखौं तोहि आँखि ।<br>दरसन देखि मुहम्मद , हिये भरौं तोरि साखि ॥49॥<br><br> सुनहु रसूल ! होत फरमानू । बोल तुम्हार कीन्ह परमानू ॥<br>तहाँ हुतेउँ जहँ हुतेउ न ठाऊँ । पहिले रचेउँ मुहम्मद नाऊँ ॥<br>तुम बिनु अबहुँ न परगट कीन्हेंउँ । सहस अठारह कहँ जिउ दीन्हेउँ ॥ <br>चौदह खँड ऊपर तर राखेउँ । नाद चलाइ भेद बहु भाखेउँ ॥<br>चार फिरिस्तन बड औतारेउँ । सात खंड बैकुंठ सँवारेउँ ॥<br>सवा लाख पैगंबर सिरजेउँ । कर करतूति उन्हहि धै बँधेउँ ॥औरन्ह कर आगे कत लेखा । जेतना सिरजा को ओहि देखा ? ॥<br> तुम तहँ एता सिरजा, आप कै अंतरहेत ।<br>देखहु दरस मुम्मद ! आपनि उमत समेत ॥50॥<br><br> सुनि फरमान हरष जिउ बाढे । एक पाँव से भए उठि ढाढे ॥<br>झारि उमत लागी तब तारी । जेता सिरजा पुरुष औ नारी ॥<br>लाग सबन्ह सहुँ दरसन होई । ओहि बिनु देखे रहा न कोई ॥<br>एक चमकार होइ उजियारा । छपै बीजु तेहि के चमकारा ॥<br>चाँद सुरुज छपिहैं बहु जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥<br>सो मनि दिपें जो कीन्हि थिराई । छपा सो रंग गात पर आई ॥<br>ओहु रूप निरमल होइ जाई । और रूप ओहि रूप समाई ॥<br> ना अस कबहूँ देखा, ना केहू ओहि भाँति ।<br>दरसन देखि मुहम्मद मोहि परे बहु भाँति ॥ 51॥<br><br> दुइ दिन लहि कोउ सुधि न सँभारे । बिनु सुधि रहे, न नैन उघारे ॥<br>तिसरे दिन जिबरैल जौ आए । सब मदमाते आनि जगाए ॥<br>जे हिय भेदि सुदरसन राते । परे परे लोटैं जस माते ॥<br>सब अस्तुति कै करै बिसेखा । ऐस रूप हम कतहुँ न देखा ॥<br>अब सब गएउ जलम-दुख धोई । जो चाहिय हठि पावा सोई ॥<br>अब निहचिंत जीउ बिधि कीन्हा । जौ पिय आपन दरसन दीन्हा ॥<br>मन कै जेति आस सब पूजी । रही न कोई आस गति दूजी ॥<br> मरन, गँजन औ परिहँस, दुख, दलिद्र सब भाग ।<br>सब सुख देखि मुहम्मद, रहस कूद जिउ लाग ॥52॥<br><br> जिबराइल कहँ आयसु होइहि । अछरिन्ह आइ आगे पय जोइहिं ॥<br>उमत रसूल केर बहिराउब । कै असवार बिहिस्त पहुँचाउब ॥<br>सात बिहिस्त बिधिनै औतारा । औ आठईं शदाद सँवारा ॥ <br>सो सब देबउमत कहँ बाँटी । एक बराबर सब कहँ आँटी ॥<br>एक एक कहँ दीन्ह निवासू । जगत-लोक विरसैं कबिलासू ॥<br>चालिस चालिस हूरैं सोई । औ सँग लागि बियाही जोई ॥<br>ओ सेवा कहँ अछरिन्ह केरी । एक एक जनि कहँ सौ-सौ चेरी ॥<br> ऐसे जतन बियाहैं जस साजै बरियात । <br>दूलह जतन मुहम्मद बिहिस्त चले बिहँसात ॥53॥<br><br> जिबराइल इतात कहँ धाए । चोल आनि उम्मत पहिराए ॥<br>पहिरहु दगल सुरँग-रँग राते । करहु सोहाग जनहु मद-माते ॥<br>ताज कुलह सिर मुहम्मद सोहै । चंद बदन औ कोकब मोहै ॥<br>न्हाइ खोरि अस बनी बराता । नबी तँबोल खात मुख राता ॥<br>तुम्हरे रुचे उमत सब आनब । औ सँवारि बहु भाँति बखानब ॥<br>खडे गिरत मद-माते ऐहैं । चढि कै घोडन कहँ कुदरैहैं ॥<br>जिन भरि जलम बहुत हिय जारा । बैठि पाँव देइ जमै ते पारा ॥<br> जैसे नबी सँवारे, तैसे बने पुनि साज ।<br>दूलह जतन मुहम्मद बिहिस्ति करैं सुख राज ॥54॥<br><br> तानब छत्र मुहम्मद माथे । औ पहिरैं फूलन्ह बिनु गाँथे ॥<br>दूलह जतन होब असवारा । लिए बरात जैहैं संसारा ॥<br>रचि रचि अछरिन्ह कीन्ह सिंगारा । बास सुबास उठै महकारा ॥<br>आज रसूल बियाहन ऐहैं । सब दुलहिन दूलह सहुँ नैहैं ॥<br>आरति करि सब आगे ऐहैं । नंद सरोदन सब मिलि गैहैं ॥<br>मँदिरन्ह होइहि सेज बिछावन । आजु सबहि कहँ मिलिहैं रावन ॥<br>बाजन बाजै बिहिस्त-दुवारा । भीतर गीत उठै झनकारा ॥<br> बनि बनि बैठीं अछरी , बैठि जोहैं कबिलास ।<br>बेगहि आउ मुहम्मद, पूजै मन कै आस ॥55॥<br><br> जिबरईल पहिले से जैहैं । जाइ रसूल बिहिस्त नियरैहैं ॥<br>खुलिहैं आठौं पँवरि दुवारा । औ पैठे लागे असवारा ॥<br>सकल लोग जब भीतर जैहैं पाछे होइ रसूल सिधैहैं ॥<br>मिलि हूरैं नेवछावरि करिहैं । सबके मुखन्ह फूल अस झरिहैं ॥<br>रहसि रहसि तिन करब किरीडा । अमर कुंकुमा भरा सरीरा ॥<br>बहुत भाँति कर नंद सरोदू । बास सुबास उठै परमोदू ॥<br>अगर, कपूर, बेना कस्तूरी । मँदिर सुबास रहब भरपूरी ॥<br> सोवन आजु जो चाहै, साजन मरदन होइ । <br>देहिं सोहाग मुहम्मद, सुख बिरसै सब कोइ ॥56॥<br><br> पैठि बिहिस्त जौ नौनिधि पैहैं ।अपने अपने मँदिर सिधैहैं ॥<br>एक एक मंदिर सात दुवारा । अगर चँदन के लाग केवारा ॥<br>हरे हरे बहु खंड सँवारे । बहुत भाँति दइ आपु सँवारे ॥<br>सोने रूपै घालि उँचावा । निरमल कुहुँकुहुँ लाग गिलावा ॥<br>हीरा रतन पदारथ जरे । तेहि क जोति दीपक जस बरै ॥<br>नदी दूध अतरन कै बहहीं । मानिक मोति परे भुइँ रहहीं ॥<br>ऊपर गा अब छाहँ सोहाई । एक एक खंड चहा दुनियाई ॥<br> तात न जूड न कुनकुन, दिवस राति नहि दुक्ख ।<br>नींद न भूख मुहम्मद, सब बिरसैं अति सुक्ख ॥57॥<br><br> देखत अछरिन केरि निकाई । रूप तें मोहि रहत मुरछाई ॥<br>लाल करत मुख जोहब पासा । कीन्ह चहैं किछु भोग-बिलासा ॥<br>हैं आगे बिनवैं सब रानी । और कहैं सब चेरिन्ह आनी ॥<br>ए सब आवैं मोरे निवासा । तुम आगे लेइ आउ कबिलासा ॥<br>जो अस रूप पाट-परधानी । औ सबहिन्ह चेरिन्ह कै रानी ॥<br>बदन जोति मनि माथे भागू । औ बिधि आगर दीन्ह सोहागू ॥<br>साहस करै सिंगार सँवारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥<br> पाट बैठि नित जोहैं, बिरहन्ह जारैं माँस ।<br>दीन दयाल, मुहम्मद ! मानहु भोग-विलास ॥58॥<br><br> सुनहिं सुरूप अबहिं बहु भाँती । इनहिं चाहि जो हैं रुपवाँती ॥<br>सातौं पवँरि नघत तिन्ह पेखब । सातइँ आए सो कौकुत देखब ॥<br>चले जाब आगे तेहि आसा । जाइ परब भीतर कबिलासा ॥<br>तखत बैठि सब देखब रानी । जे सब चाहि पाट-परधानी ॥<br>दसन-जोति उट्ठ चमकारा । सकल बिहिस्त होइ उजियारा ॥<br>बारहबानी कर जो सोना । तेहि तें चाहि रूप अति लोना ॥<br>निरमल बदन चंद कै जोती । सब क सरीर दिपैं जस मोती ॥<br> बास सुबास छुवै जेहि बेधि भँवर कहँ जात ।<br>बर सो देखि मुहम्मद हिरदै महँ न समात ॥59॥<br><br> पैग पै जस जस नियराउब । अधिक सवाद मिलै कर पाउब ॥<br>नैन समाइ रहै चुप लागे । सब कहँ आइ लेहिं होइ आगे ॥<br>बिसरहु दूलह जोबन-बारी । पाएउ दुलहिन राजकुमारी ॥<br>एहि महँ सो कर गहि लेइ जैहैं । आधे तखत पै लै बैठैहैं ॥<br>सब अछूत तुम कहँ भरि राखे । महै सवाद होइ जौ चाखै ॥<br>नित पिरीत, नित नव नव नेहु । नित इठि चौगुन होइ सनेहू ॥<br>नित्तइ नित्त जो बारि बियाहै । बीसौ बीस अधिक ओहिं चाहै ॥<br> तहाँ त मीचु, न नींद, दुख, रह न देह महँ रोग ।<br>सदा अनँद `मुहम्मद', सब सुख मानैं भोग ॥60॥<br><br>मोहम्मद जायसी]]