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Kavita Kosh से
हम डूब के समझे हैं दरिया तेरी गहराई
जाग ऐ मेरे हम-साया ख़्वाबों के तसलसुल <ref>निरन्तरता</ref> से
दीवार से आँगन में अब धूप उतर आई
चलते हुए बादल के साए <ref>परछाई</ref> के तआक़ुब <ref>पीछा करना</ref> मेंये तिश्ना-लबी <ref>प्यास</ref> मुझ को सहराओं <ref>रेगिस्तानों</ref> में ले आई
ये जब्र <ref>ज़ुल्म</ref> भी देखा है तारीख़ <ref>इतिहास</ref> की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
क्या सानेहा <ref>्घटना</ref> याद आया ‘रज़्मी’ की तबाही का
क्यूँ आप की नाज़ुक सी आँखों में नमी आई
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