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Kavita Kosh से
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मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक्त वक़्त इसी का नाम हैकि घटनाए घटनाएँ कुचलती चली जाएजाएँ
मस्त हाथी की तरह
एक पुरे पूरे मनुष्य की चेतना?
कि हर प्रश्न
काम में लगे जिस्म ज़िस्म की गलती ग़लती ही हो?
जरा सोचो -
कि हममे से कितनो कितनों का नाता है जींदगी ज़िन्दगी जैसी किसी वस्तु के साथ!
रब की वो कैसी रहमत है
जो कनक बोते फटे हुए हाथोहाथों-और मंडी बिच के तख्तपोश बीचोबीच के तख़्तपोश पर फैली हुई मास माँस की
उस पिलपली ढेरी पर,
एक ही समय होती है?
घिरे हुए चेहरो पर जम गई है
एक चीखतीं चीख़तीं ख़ामोशी?
मशीन मे चारा डाल रहे
कुतरे हुए अरमानो अरमानों वाले डोलो की मछलियामछलियाँ ?क्यों गीड़गड़ाता गिड़गिड़ाता है मेरे गाव गाँव का किसान एक मामूली से पुलिसऐ पुलिसए के आगे?कियो क्यों किसी दरड़े जाते आदमी के चीकने को चौंकने के लिए हर वारकोकवीता कविता कह दिया जाता है?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
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