भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |अंगारों पर ...' के साथ नया पन्ना बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ज़हन में हर घड़ी सिक्कों की ही झंकार ठहरे
तुम्हारे दिल में ठहरे भी तो कैसे प्यार ठहरे
बनें सम्बन्ध कैसे दोस्ताना सोचिए तो
कि मैं पानी हूँ वो दहके हुए अंगार ठहरे
बहुत बेताब है इज़हार को ये दिल की हसरत
कि आखि़रकार कब तक म्यान में तलवार ठहरे
सहेजे कौन हमको और आखि़र क्यों सहेजे
विगत तारीख़ के हम फ़ा़लतू अख़बार ठहरे
ये तेरी नौकरी दुख की बड़ी बेजा है मालिक
कि इसमें क्यों नहीं सुख का कोई इतवार ठहरे
वो झुकते क्यों उन्हें तो थी बहुत पैसों की गरमी
झुके हम भी नहीं, हम भी तो फिर फ़नकार ठहरे
‘अकेला’ कामयाबी चूमती तेरे क़दम भी
मगर तू है कि ना लब पर तेरे मनुहार ठहरे
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
ज़हन में हर घड़ी सिक्कों की ही झंकार ठहरे
तुम्हारे दिल में ठहरे भी तो कैसे प्यार ठहरे
बनें सम्बन्ध कैसे दोस्ताना सोचिए तो
कि मैं पानी हूँ वो दहके हुए अंगार ठहरे
बहुत बेताब है इज़हार को ये दिल की हसरत
कि आखि़रकार कब तक म्यान में तलवार ठहरे
सहेजे कौन हमको और आखि़र क्यों सहेजे
विगत तारीख़ के हम फ़ा़लतू अख़बार ठहरे
ये तेरी नौकरी दुख की बड़ी बेजा है मालिक
कि इसमें क्यों नहीं सुख का कोई इतवार ठहरे
वो झुकते क्यों उन्हें तो थी बहुत पैसों की गरमी
झुके हम भी नहीं, हम भी तो फिर फ़नकार ठहरे
‘अकेला’ कामयाबी चूमती तेरे क़दम भी
मगर तू है कि ना लब पर तेरे मनुहार ठहरे
</poem>