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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|अंगारों पर शबनम / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
चिकित्सकों को मैं यारो बीमार समझ में ना आया
सच्चाई ये है उनको उपचार समझ में ना आया

गै़रों के बर्तावों पर मैं बोलूँ भी तो क्या बोलूँ
मुझको तो अपनों का ही व्यवहार समझ में ना आया

यदि सच्चे हैं अमन, चैन, खुशहाली के दावे तो फिर
मचा हुआ है क्यों ये हाहाकार समझ में ना आया

कभी मित्रता प्रकटित करना, कभी किनारा कर जाना
उसके मन में क्या है आखि़रकार समझ में ना आया

वो कर्तव्यों की परिभाषा बतलाने में हिचके हैं
मैं ऐसा जिसको अपना अधिकार समझ में ना आया

इष्ट मित्र को भद्दी गाली देकर सम्बोधित करना
अपनेपन का मुझको ये इज़हार समझ में ना आया

तेरे जाने पर यूँ मेरी आँख नहीं गीली होती
हां लेकिन मुझको गीता का सार समझ में ना आया
</poem>
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