भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ईसुरी की फाग-1 / बुन्देली

12 bytes removed, 07:55, 7 अप्रैल 2013
|भाषा=बुन्देली
}}
<poem>
तुम खों छोड़न नहि विचारें
 
भरवौ लों अख्तयारें
 
जब ना हती, कछू कर घर की, रए गरे में डारें
 
अब को छोड़ें देत, प्रान में प्यारी भई हमारें
 
लगियो न भरमाए काऊ के, रैयो सुरत सम्भारें
 
ईसुर चाएँ तुमारे पीछें, घलें सीस तलवारें
</poem>
 ''' ====भावार्थ'''<br><br>====तुम्हें छोड़ने का मेरा कोई विचार नहीं है, चाहे मरना पड़ जाए । जाए। मैं तुम्हें तब से गले में डाले हुए हूँ, जब तुम जवान  नहीं थीं और पुरुष के आनन्द की चीज़ नहीं थीं । थीं। अब तो तुम यौवन की मालकिन हो । हो। अब, भला, कैसे छोड़ूंगा तुम्हें । तुम्हें। अब तो तुम मेरे मन-प्राण में बसी हुई हो । हो। बस, अब तुम्हें कोई कितना भी भरमाए, उसके भरमाए में मत आना । आना। चाहें तुम्हारे पीछे तलवारें चल जाएँ और सिर कट जाएँ । जाएँ। लेकिन ईसुर को अब किसी बात की परवाह नहीं है ।है।