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|रचनाकार=सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नही चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक- बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी-
'सुनते हो'।
चिलम औंधी
धुआँ उठा-
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया।